क़ुतुब मीनार तथा ध्रुव स्तंभ का रहस्य
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अस्तोमा सद्ग्मया| तमसोमा ज्योतिरग्मया| मृत्योर्मा अम्रुतान्गमया| ॐ शांति शांति शांतिही ||
शनिवार, 28 जून 2014
क़ुतुब मीनार तथा ध्रुव स्तंभ का रहस्य (The Secret of Qutab Minar and Dhruv Stambha)
1191A.D.में मोहम्मद गौरी ने दिल्ली पर आक्रमण किया ,तराइन के मैदान में पृथ्वी राज चौहान के साथ युद्ध में गौरी बुरी तरह पराजित हुआ, 1192 में गौरी ने दुबारा आक्रमण में पृथ्वीराज को हरा दिया ,कुतुबुद्दीन, गौरी का सेनापति था
1206 में गौरी ने कुतुबुद्दीन को अपना नायब नियुक्त किया और जब 1206 A.D,में मोहम्मद गौरी की मृत्यु हुई तब वह गद्दी पर बैठा ,अनेक विरोधियों को समाप्त करने में उसे लाहौर में ही दो वर्ष लग गए I
1210 A.D. लाहौर में पोलो खेलते हुए घोड़े से गिरकर उसकी मौत हो गयी अब इतिहास के पन्नों में लिख दिया गया है कि कुतुबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार ,कुवैतुल इस्लाम मस्जिद और अजमेर में अढाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद भी बनवाई I
अब कुछ प्रश्न .......
अब कुतुबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार बनाई, लेकिन कब ?
क्या कुतुबुद्दीन ने अपने राज्य काल 1206 से 1210 मीनार का निर्माण करा सकता था ? जबकि पहले के दो वर्ष उसने लाहौर में विरोधियों को समाप्त करने में बिताये और 1210 में भी मरने के पहले भी वह लाहौर में था ?......शायद नहीं I
कुछ ने लिखा कि इसे 1193AD में बनाना शुरू किया
यह भी कि कुतुबुद्दीन ने सिर्फ एक ही मंजिल बनायीं
उसके ऊपर तीन मंजिलें उसके परवर्ती बादशाह इल्तुतमिश ने बनाई और उसके ऊपर कि शेष मंजिलें बाद में बनी I
यदि 1193 में कुतुबुद्दीन ने मीनार बनवाना शुरू किया होता तो उसका नाम बादशाह गौरी के नाम पर "गौरी मीनार "या ऐसा ही कुछ होता
न कि सेनापति कुतुबुद्दीन के नाम पर क़ुतुब मीनार I
उसने लिखवाया कि उस परिसर में बने 27 मंदिरों को गिरा कर उनके मलबे से मीनार बनवाई ,अब क्या किसी भवन के मलबे से कोई क़ुतुब मीनार जैसा उत्कृष्ट कलापूर्ण भवन बनाया जा सकता है जिसका हर पत्थर स्थानानुसार अलग अलग नाप का पूर्व निर्धारित होता है ?
कुछ लोगो ने लिखा कि नमाज़ समय अजान देने के लिए यह मीनार बनी पर क्या उतनी ऊंचाई से किसी कि आवाज़ निचे तक आ भी सकती है ?
उपरोक्त सभी बातें झूठ का पुलिंदा लगती है इनमें कुछ भी तर्क की कसौटी पर सच्चा नहीं लगता सच तो यह है की जिस स्थान में क़ुतुब परिसर है वह मेहरौली कहा जाता है, मेहरौली वराहमिहिर के नाम पर बसाया गया था जो सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में एक , और खगोलशास्त्री थे उन्होंने इस परिसर में मीनार यानि स्तम्भ के चारों ओर नक्षत्रों के अध्ययन के लिए २७ कलापूर्ण परिपथों का निर्माण करवाया था I
इन परिपथों के स्तंभों पर सूक्ष्म कारीगरी के साथ देवी देवताओं की प्रतिमाएं भी उकेरी गयीं थीं जो नष्ट किये जाने के बाद भी कहीं कहींदिख जाती हैं I
कुछ संस्कृत भाषा के अंश दीवारों और बीथिकाओं के स्तंभों पर उकेरे हुए मिल जायेंगे जो मिटाए गए होने के बावजूद पढ़े जा सकते हैं I
मीनार , चारों ओर के निर्माण का ही भाग लगता है ,अलग से बनवाया हुआ नहीं लगता,
इसमे मूल रूप में सात मंजिलें थीं सातवीं मंजिल पर " ब्रम्हा जी की हाथ में वेद लिए हुए "मूर्ति थी जो तोड़ डाली गयीं थी ,छठी मंजिल पर विष्णु जी की मूर्ति के साथ कुछ निर्माण थे
वो भी हटा दिए गए होंगे ,अब केवल पाँच मंजिलें ही शेष है
इसका नाम विष्णु ध्वज /विष्णु स्तम्भ या ध्रुव स्तम्भ प्रचलन में थे ,
इन सब का सबसे बड़ा प्रमाण उसी परिसर में खड़ा लौह स्तम्भ है जिस पर खुदा हुआ ब्राम्ही भाषा का लेख जिसे झुठलाया नहीं जा सकता ,लिखा है की यह स्तम्भ जिसे गरुड़ ध्वज कहा गया है ,सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य (राज्य काल 380-414 ईसवीं) द्वारा स्थापित किया गया था और यह लौह स्तम्भ आज भी विज्ञानं के लिए आश्चर्य की बात है कि आज तक इसमें जंग नहीं लगा .उसी महानसम्राट के दरबार में महान गणितज्ञ आर्य भट्ट,खगोल शास्त्री एवं भवन निर्माण
विशेषज्ञ वराह मिहिर ,वैद्य राज ब्रम्हगुप्त आदि हुए
ऐसे राजा के राज्य काल को जिसमे लौह स्तम्भ स्थापित हुआ तो क्या जंगल में अकेला स्तम्भ बना होगा निश्चय ही आसपास अन्य निर्माण हुए होंगे जिसमे एक भगवन विष्णु का मंदिर था उसी मंदिर के पार्श्व में विशालस्तम्भ वि ष्णुध्वज जिसमे सत्ताईस झरोखे जो सत्ताईस नक्षत्रो व खगोलीय अध्ययन के लिए बनाए गए निश्चय ही वराह मिहिर के निर्देशन में बनाये गए
इस प्रकार कुतब मीनार के निर्माण का श्रेय सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य के राज्य कल में खगोल शाष्त्री वराहमिहिर को जाता है I
कुतुबुद्दीन ने सिर्फ इतना किया कि भगवान विष्णु के मंदिर को विध्वंस किया उसे कुवातुल इस्लाम मस्जिद कह दिया ,विष्णु ध्वज (स्तम्भ ) के हिन्दू संकेतों को छुपाकर उन पर
अरबी के शब्द लिखा दिए और क़ुतुब मीनार बन गया
शुक्रवार, 27 जून 2014
Mystical Technologies of Ancient India (प्राचीन भारत का रहस्यमयी विज्ञान )
सभी प्रारंभिक सभ्यताओं में भौतिक विज्ञानों का अध्ययन न तो परिभाषित था और न ही ज्ञान की अन्य शाखाओं से प्रथक था। प्रारंभ में जो नवीनशिल्प और कार्य व्यवहारतः विकसित हुए जिनमें वैज्ञानिक सिद्धांतों के प्रयोग की जरूरत थी परंतु उनसे अलग हटकर विज्ञान के सिद्धांतों का स्वतंत्रा अध्ययन करने के प्रयास नहीं के बराबर हुए। अधिकांश मामलों में जो तकनीकी अनुसंधान हुए उनमें निहित वैज्ञानिक सिद्धांतों की कोई जानकारी नहीं थी और ये अनुसंधान अटकलपच्चू विधि और पूर्व अनुभव के जरिए हुए। कभी-कभी विज्ञान के प्रति एक अस्पष्ट जागरूकता आती थी मगर तकनीक के व्यवहारिक पक्ष और उनकी व्यवहारिक सफलता पर ही ध्यान अधिक केंद्रित था न कि इस बात पर कि कैसे और क्यों कभी सफलता मिलती थी और कभी क्यों नहीं मिलती थी ?
भारत में रसायन के प्रारंभिक प्रयोग, औषधि, धातुकर्म, निर्माणशिल्प जैसे सीमेंट और रंगों के उत्पादन, वस्त्रा उत्पादन और रंगाई के संदर्भ में हुए। रासायनिक प्रक्रियाओं को समझने के दौरान पदार्थ के मूल तत्वों की व्याख्या करने में भी रुचि उत्पन्न हुई कि वे किन वस्तुओं के मेल से बने और किस प्रकार उनके आपसी मेल से नई वस्तुयें बनती थीं। समुद्री ज्वार, वृष्टिपात, सूर्य का स्वरूप, चंद्रमा और तारों के निर्माण, मौसम में परिवर्तन, ऋतुओं की रूपरेखा और कृषि आदि के संदर्भ में प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन हुआ। उदाहरणार्थ - वैदिक साहित्य में वर्णित है कि किस प्रकार सूर्य के ताप से समुद्र और सागरों से जल का वाष्पीकरण और संघनन होकर बादलों का निर्माण और वर्षा होती है। स्पष्ट है कि इनसे भौतिक प्रक्रियाओं और प्राकृतिक शक्तियों के बारे में उन सिद्धांतों तक पहुंचा जा सका जिनका रसायन और भौतिकी के क्षेत्रा में विशिष्ट शीर्षकों के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है।
दर्शन और भौतिक विज्ञान
यह कहना कठिन है कि पहले सिद्धांत आया या उसका उपयोग। स्पष्टतः दोनों में एक द्वंदात्मक संबंध है और दोनों में से किसी की भी अवहेलना करने से विज्ञान की इति हो जाती है। धार्मिक विश्वास, विशेषतः धार्मिक निषेध और रहस्यात्मक या जादुई घटनाओं के लिए प्रतिपादित अबौद्धिक सिद्धांत या गलत अंधविश्वासों के प्रति लगाव प्रायः विज्ञान की प्रगति में गंभीर रूप से बाधक हो सकते हैं और भौतिक घटनाओं के क्यों और कैसे की खोज में महत्वपूर्ण योगदान करने से रोक सकते हैं।
वे समाज जिनका विश्वास था कि प्रकृति के रहस्यों को केवल देवता ही जान सकते हैं अतएव मनुष्य द्वारा ब्रहमांड के रहस्यों की गुत्थी सुलझाने का प्रयास निरर्थक है, स्पष्ट है कि वे समाज विज्ञान की दुनिया में कोई उल्लेखनीय प्रगति करने में असमर्थ रहे हैं। उन समाजों में भी जहां विश्व की वास्तविक घटनाओं को वैज्ञानिक तरीके से समझने के मार्ग में कोई धार्मिक निषेध नहीं था, पुरोहितों की सत्ता और प्रभाव वैज्ञानिक प्रगति के मार्ग में अवरोध बन सकती थी। उदाहरणार्थ ऐसे समाज में जहां अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करने के लिए केवल कर्मकाण्डीय गतिविधियां पर्याप्त समझी जाती हों, स्वाभाविक है कि प्रकृति के गुणों और नियमों के बारे में गंभीर गंवेषणा करने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती।
प्राचीन भारत लगभग पहले प्रकार के दुर्भाग्य - विज्ञान का धर्म द्वारा विरोध से पीड़ित नहीं था परंतु दूसरे प्रकार की त्राुटि - कर्मकाण्डों और अंधविश्वासों के प्रसार से ग्रस्त था। इस प्रकार भारत में विज्ञान का प्रसार अनिवार्य रूप से पुरोहितों के वर्चस्व को चुनौती देता था और कर्मकाण्डों और बलिप्रथा के प्रसार के रास्ते में बाधक था। कम से कम यह तर्क प्रस्तुत करना जरूरी था कि अभीष्ट फल प्राप्ति के लिए कर्मकाण्ड अपर्याप्त थे और यह कि मानव की नियति को आकार देने के लिए विश्व का विवेक सम्मत निरीक्षण कुछ हद तक आवश्यक था। इसलिए यह कोई संयोग नहीं था कि विज्ञान और तकनीक का विकास, भारत में विवेकवादी दर्शन के विकास के समानान्तर हुआ। देखिएः ’’प्राचीन भारत में दार्शनिक विचार और वैज्ञानिक तरीकों का विकास’’।
प्राचीनतम वैज्ञानिक ग्रंथों, जैसे कि विशेषिक में, जो 6 वीं सदी ई.पू. या संभवतः और पहले की रचना है - देेखिएः ’’उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास’’ - में विभिन्न प्रकार के पौधों और प्राकृतिक वस्तुओं के भौतिक गुणों को लिपिबद्ध करने का प्रारंभिक प्रयास किया गया। प्राकृतिक घटनाओं का निरीक्षण करके उनका वर्गीकरण और संक्षेप में उनका वर्णन करने का भी प्रयास किया गया। उसके बाद पदार्थ की संरचना और उनके भौतिक व्यवहार के बारे में सिद्धांत प्रतिपादित किया गया और उनके लिए सूत्रा विकसित किए गए। इस प्रकार यद्यपि भारत में भौतिकी और रसायन के प्राचीनतम प्रयोग - जैसा कि अन्य प्राचीन समाजों में भी हुआ, विज्ञान की इन शाखाओं के सैद्धांतिक ज्ञान या जानकारी के अभाव में ही हुए। इन प्रारंभिक विवेक सम्मत ग्रंथों में वैज्ञानिक गवेषणा और वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण के तत्व विद्यमान थे। यद्यपि ये कदम प्रारंभिक और काम चलाउ थे, फिर भी, भौतिकी, रसायन, उद्भिज विज्ञान, जीव विज्ञान और अन्य भौतिक विज्ञानांे में आज के स्तर के ज्ञान तक मानवता को पहुंचने के लिए बहुत ही आवश्यक थे।
कणभौतिकी
यद्यपि कणभौतिकी आधुनिक भौतिकी की सर्वाधिक विकसित और सर्वाधिक जटिल शाखाओं में से एक है, प्राचीनतम परमाणु सिद्धांत कम से कम 2500 वर्ष पुराना है। भारत में दर्शन की लगभग हर विवेकसम्मत विचारधारा में चाहे वह हिंदू, जैन या बौद्ध हो, मूलकणों की प्रकृति के संबंध में कुछ न कुछ आख्यान है और इन विभिन्न विचारधाराओं ने इस विचार को प्रसारित किया कि पदार्थ परमाणुओं द्वारा संरचित है जो अविभाज्य और अनश्वर है। देखिएः ’’उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास’’। परवर्ती दार्शनिकों ने इस विचारधारा को और आगे बढ़ाते हुए प्रतिपादित किया कि परमाणु केवल जोड़े में ही नहीं वरन् तिकड़ी में भी संयुक्त हो सकते थे और यह कि युग्म और तिकड़ी में उनकी पास-पास सजावट ही प्रकृति में प्राप्त वस्तुओं के विभिन्न भौतिक गुणों के लिए जिम्मेवार थी। जैनों ने यह भी प्रतिपादित किया कि परमाणुओं के संयोजन के लिए संयुक्त होने वाले परमाणुओं में विशिष्ट गुणों की आवश्यकता है तथा आवश्यकता है अलग से एक उत्प्रेरक परमाणु की। इस प्रकार प्रारंभिक परमाणु सिद्धांत पदार्थ के अणु सिद्धांत में परिवर्तित हो गए। यद्यपि इन सिद्धांतों के कई वर्णन वैज्ञानिक यथार्थ की कसौटी पर आज खरे नहीं उतरते तथापि इन सूत्रों में बहुत कुछ ऐसा है जो अपने समय से काफी आगे है और परिमार्जित है।
/यद्यपि यह महज एक संयोग हो सकता है, लेकिन जैनों का आणविक सिद्धांत भैषज या धातुकर्म जैसे अन्य क्षेत्रों में हुई व्यवहारिक उन्नतियों के समानान्तर हुआ। धातुओं में उप्प्रेरकों के महत्वपूर्ण योग में देखा गया और सावधानी से लिपिबद्ध हुआ। भारतीय भैषज ग्रंथों में प्रतिपादित किया गया कि मानव शरीर में समुचित पाचन के लिए और औषधियों तथा काढ़ों के सफल अवशोषण के लिए भी उत्प्रेरक वस्तुओं की आवश्यकता है। भैषज विज्ञान और शल्य उपयोगों के संदर्भ में अम्लों और क्षारों के निर्माण हेतु उत्प्रेरक वस्तुओं की जरूरत को रेखांकित किया गया, ठीक वैसे ही जैसे कि धातुकर्म की प्रक्रियाओं और पक्के रंग वाले रोगनों के निर्माण में उपयुक्त उत्प्रेरकों के योगदान को। /आज उत्प्रेरकों की मदद से होने वाली प्रक्रियाओं के बारे में हम बहुत कुछ जानते हैं; विविध प्रकार के खनिजों, विटामिनों और एंजाइमों की पहचान कर ली गई है जो हमारे शरीर के अंदर होने वाली महत्वपूर्ण रासायनिक प्रक्रियाओं की श्रंृखला में उत्प्रेरकों के रूप में महत्वपूर्ण योगदान उसी प्रकार करते हैं जैसे कि अन्य भौतिक प्रक्रियाओं में उत्प्रेरक यौगिक करते हैं।/
उष्मा द्वारा होने वाले रासायनिक परिवर्तनों की व्याख्या करने के लिए भी परमाणु तथा अणु सिद्धांतों का उपयोग किया गया यद्यपि ऐसा अनुमानतः किया गया। प्रशस्तपाद ने प्रस्तावित किया कि तेजस /उष्मा/ अवयव अणु-व्यूहों को प्रभावित करता है जिससे रासायनिक परिवर्तन होते हैं। इस प्रक्रिया की विस्तृत व्याख्या के लिए दो प्रतिस्पर्धी सिद्धांत प्रस्तुत हुए जिसका प्रयोग मृदभाण्डों को अग्नि द्वारा पकाने / रंगने की प्रक्रिया की व्याख्या में किया गयाः पीलुपाकवाद सिद्धांत जिसका प्रस्ताव वैशेषिकों ने रखा मानता था कि उष्मा के प्रयोग से परमाणु की व्यूह रचना बदल जाती है जिससे नए अणुओं और भिन्न रंग का निर्माण होता है। पीठारपादवाद सिद्धांत जिसे न्यायदर्शन के अनुयायियों ने विकसित किया इससे असहमत होते हुए कहता था कि आणुविक परिवर्तन अथवा नई संरचना होती अवश्य है परंतु बिना प्रारंभिक अणुओं के मूल-परमाणुओं में विघटित हुए, क्योंकि यदि ऐसा होता तो मृदभाण्ड भी विघटित हो जाता; परंतु मृदभाण्ड तो समूचा रहता है, केवल रंग में ही परिवर्तन होता है।
गतिज उर्जा की एक अवचेतनात्मक समझ प्रशस्तपाद और न्याय-वैशेषिकों के ग्रंथों में मिलती है जिसके अनुसार सारे परमाणु निरंतर गतिशील अवस्था में रहते हैं। ऐसी आणविक-परमाणविक गतियां, चाहे वह घूर्णन हो या वृत्ताकार गति या हारमोनिक गति, के वर्णन के लिए उन्होंने परिस्पंद की परिकल्पना प्रस्तुत की।
प्रकाश और ध्वनि
प्रारंभिक भारतीय विवेकवादियों ने प्रकाश और ध्वनि के स्वभाव के बारे में सिद्धांत प्रस्तुत करने की कोशिश की। प्राचीन यूनानियों की भांति प्राचीन भारतीय दार्शनिक भी आंख को प्रकाश का स्त्रोत् मानते थे और यह गलतफहमी पहली सदी तक कायम रही जब तक सुश्रुत ने यह प्रतिपादित नहीं कर दिया कि किसी बाहरी स्त्रोत से आने वाला प्रकाश हमारे चक्षु-पटल पर पड़कर हमारे चारों ओर के विश्व को प्रकाशित करता है। 5 वीं सदी में आर्यभट ने भी इसकी पुष्टि की। अन्य मामलों में, प्रारंभिक दार्शनिकों की बातें बहुत सटीक थीं। चक्रपाणि ने बताया कि ध्वनि और प्रकाश दोनों की गति लहरों के रूप में होती है परंतु प्रकाश की गति अपेक्षाकृत बहुत तीव्र होती है। अन्य लोगों ने, जैसे कि मीमांसकों ने कल्पना की कि प्रकाश बहुत सूक्ष्म कणों से बना है /आजकल उसे फोटान कहते हैं/ जो निरंतर गतिमान रहते हैं और मूल-स्त्रोत से उनका निरंतर विकिरण और डिफ्यूजन होता रहता है।
ध्वनि का लहर जैसा स्वभाव प्रशस्तपाद द्वारा भी वर्णित किया गया है। उन्होंने परिकल्पित किया कि जिस प्रकार पानी में लहरों की गति होती है वैसे ही ध्वनि हवा में बढ़ते हुए वृत्तों के रूप में चलती है। ध्वनि का परावर्तन अपने ढंग का ही होता है जिसे प्रतिध्वनि कहा जाता है। संगीत की श्रुतियों के बारे में कहा गया है कि इनका कारण कंपन का परिणाम और बारंबारता है। स्वर के बारे में विश्वास किया जाता था कि यह श्रुति /मूल स्वर/ और कुछ अनुरनन /आंशिक स्वरों या हारमोनिक्स/ के संयोग से बनते हैं। कुछ परिकल्पनाओं यथा जाति व्यक्तोखि तादात्म्यस् /स्वर के प्रकार और जातियां/ परिणाम /मूलभूत बारंबारता का परिवर्तन/, व्यंजना /ओवरटोन का प्रदर्शन, विवतर््न /ध्वनि का परावर्तन/ और कार्यकारण भाव /ध्वनि का कारण और प्रभाव/ के आधार पर संगीत सिद्धांत की व्याख्या की गई।
6 वीं सदी में वाराहमिहिर ने परावर्तन की व्याख्या करते हुए बताया कि प्रकाश के कण किसी वस्तु पर पड़कर वापिस छिटक जाते हैं जिसे किरण विघट्टन या मूच्र्छना कहा जाता हैः यही प्रकाश का परावर्तन है। वात्स्यायन ने इस घटना को रश्मि परावर्तन का नाम दिया। इस धारणा को अंगीकार करके छाया बनने और वस्तुओं की अपारदर्शिता की व्याख्या की गई। आवर्तन के बारे में यह कहा गया कि इसका कारण अर्धपारदर्शी और पारदर्शी वस्तुओं के अंतः स्थानों को भेदने की प्रकाश की क्षमता है और उद्दोतकार ने इसकी तुलना उन द्रव्यों से की जो छिद्रयुक्त वस्तुओं से गुजरते हैं - तत्रा परिस्पंदः तिर्यग्गमनम् परिश्रवः पातयति।
/अल हयाथम् ने जो बसरा में जन्मा था और जिसने 10 वीं सदी में काहिरा को अपना कार्यक्षेत्रा बनाया था संभवतः आर्यभट की रचनाओं से परिचित था। उसने आप्टिक्स के बारे में एक और अधिक उन्नत सिद्धांत प्रस्तुत करते हुए प्रकाश किरणों की मदद से चित्रा द्वारा परावर्तन और आवर्तन की अभिकल्पनाओं की व्याख्या की। आवर्तन के नियमों की व्याख्या के लिए तथा प्रकाश किरणें विभिन्न पदार्थाें में अलग अलग गति से चलतीं हैं जिसके कारण आवर्तन की घटना होती है इस बात को समझाने के लिए वह विशेष तौर पर जाना जाता है।/
ज्योतिर्विज्ञान और भौतिकी
ठीक जैसे गणित के अध्ययन को ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन से बल मिला वैसे ही भौतिकी के अध्ययन को भी मिला। जैसा कि गणित वाले लेख में बताया गया है, आर्यभट ने 5 वीं सदी से 6 वीं सदी में ग्रहों की गति के क्षेत्रा में गवेषणा का मार्ग प्रशस्त किया। इससे आकाश और काल-मापक इकाईयों की परिभाषा और गुरूत्वाकर्षण, गति और वेग की अवधारणाओं की बेहतर समझ का विकास हुआ।
/उदाहरणार्थ यतिबृषभ की कृति तिलोयपन्नति में, जो 6 वीं सदी में रची गई थी, काल और दूरी माप के लिए विभिन्न इकाईयों का वर्णन है और असीम काल की माप के लिए भी एक प्रणाली का वर्णन है। इससे भी महत्वपूर्ण है वाचस्पति मिश्र द्वारा लगभग 840 ई. के आसपास ठोस ज्यामिति / त्रिविमीय अक्षीय ज्यामिति की अभिकल्पना, जिसका अविष्कार दे कार्तस ने 1644 ई. में किया था। न्याय शुचि निबंध में वे लिखते हैं कि आकाश में किसी भी कण की स्थिति की एक दूसरे कण की स्थिति के संदर्भ में तीन काल्पनिक अक्षों के सहारे गणना की जा सकती है।/
ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन से काल और आकाश की बहुत बड़ी और बहुत छोटी इकाईयों की रचना में काफी रुचि जागृत हुई। एक सौर दिन 1944000 क्षणांे के बराबर होता है, यह न्याय-वैशेषिकों का कथन था। इस प्रकार एक क्षण 0.044 सेकिंड के बराबर हुआ। काल के न्यूनतम माप त्राुटि को परिभाषित किया गया जो 2.9623 गुणा 10 वर्ग 4 के बराबर थी। शिल्पशास्त्रा में लम्बाई की न्यूनतम माप परमाणु मानी गई है जो 1 बटा 349525 इंच के बराबर है। यह माप न्याय-वैशेषिक की न्यूनतम मुटाई - त्रासरेणु से मेल खाती है - जो अंधेरे कमरे में चमकने वाली धूप के पुंज की सूक्ष्मतम कण के बराबर है। 6 वीं सदी के आसपास वाराहमिहिर ने अभिकल्पित किया था कि 86 त्रासरेणु मिलकर एक अंगुलि अर्थात् 3/4 इंच के बराबर हैं। उसने यह भी बताया कि 64 त्रासरेणु मिलकर बाल की मोटाई के बराबर हैं।/
गति के नियम
यद्यपि वैशेषिकों ने विभिन्न प्रकार की गतियों का वर्गीकरण करने का प्रयास किया, 7 वीं सदी में प्रशस्तपाद ने इस विषय पर अध्ययन को काफी आगे बढ़ाया। उसकी दी गई कई परिभाषाओं से प्रतीत होता है कि उसकी कुछ अभिकल्पनायें ग्रहों की गति से उपजी हैं। रैखिक गति के अतिरिक्त प्रशस्तपाद ने वक्रीय गति - गमन, परिक्रमा वाली गति - भ्रमण और कंपन गति का भी वर्णन किया है। उसने गुरूत्वशक्ति या द्रव्यों के बहाव के फलस्वरूप होने वाली गति तथा किसी बाहय् क्रिया के फलस्वरूप होने वाली गति में अंतर भी बताया है।
वह लचीलापन या संवेग के फलस्वरूप होने वाली गति से या बाहय् बल की प्रतिक्रिया के कारण होने वाली गति से भी परिचित था। उसने यह भी नोट किया कि कुछ प्रकार की क्रियाओं से एक जैसी गति होती है, कुछ प्रकार की क्रियाओं से विपरीत दिशा में गति होती है और कभी-कभी कोई गति नहीं होती तथा इन विभिन्नताओं का कारण है परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया करने वाली वस्तुओं के अंदर निहित गुण।
प्रशस्तपाद ने यह भी पाया कि किसी भी एक काल में एक कण में एक ही गति हो सकती है /यद्यपि एक वस्तु उदाहरणार्थ कंपायमान पत्रा /ब्लोइंग लीफ/ जिसमें कणों की बड़ी संख्या होती है, में होने वाली गति अधिक जटिल प्रकार की होगी क्योंकि विभिन्न कण अलग-अलग प्रकार से गति कर रहे होंगे। यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा थी जिससे आगे चलकर गति के नियमों को गणित के सूत्रों में बांधने में मदद मिली।
10 वीं सदी में श्रीधर ने प्रशस्तपाद के निरीक्षणों की पुष्टि की और उसने जो कुछ निरीक्षण के बाद लिखा था उसका विस्तार किया। 12 वीं सदी में भास्कराचार्य ने अपनी कृतियों, सिद्धांत शिरोमणि और गणिताध्याय में गणितीकरण की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम उठाया और औसत वेग की माप इस प्रकार की अ त्र े ध् ज /जहां अ त्र औसत वेग, े त्र चली गई कुल दूरी और ज त्र समय।/
अपने समय के हिसाब से, प्रशस्तपाद के कार्य और बाद में, श्रीधर और भास्कराचार्य द्वारा उनकी व्याख्या को बहुत महत्वपूर्ण मानना चाहिए था। मगर, भारतीय ग्रंथों की एक बड़ी कमजोरी थी कि बाद में उनका गणितीकरण और अवधारणाओं की व्याख्या का आगे प्रयास न करना। उदाहरणार्थ गति के कई प्रकार के लिए अज्ञात कारणों को जिम्मेवार माना गया। परंतु इन समस्याओं को हल करने की कोई कोशिश आगे नहीं हुई और न यह अनुभव किया गया कि गति के विभिन्न प्रकारों के पीछे अदृश्य कारणों के लिए सामान्य तौर पर कोई अवधारणा प्रस्तुत करने की जरूरत है, विधिक तौर पर उन्हें परिभाषित करने और एक मौलिक तरीके से उन्हें प्रगट करने की आवश्यकता है, जैसा कि कुछ सदियों बाद न्यूटन ने एक गणितीय सू़त्रा के माध्यम से किया।
प्रयोग बनाम सहजज्ञान
वास्तव में, गति के अध्ययन में अगला बड़ा कदम इंग्लेंड में उठना था, जहां वैज्ञानिक गवेषणा के लिए रोजर बेकन, 13 वीं सदी, जैसे लोगों ने जमीन तैयार की थी। उसने शिक्षा प्राप्ति के रास्ते में रोड़े गिनाये - सत्ता के प्रति /आवश्यकता से अधिक/ सम्मान, अभ्यस्तता का बल, आध्यात्मविद्या संबंधी दुराग्रह और ज्ञान की गलत अवधारणा। एक सदी बाद आक्सफोर्ड के मर्टन विद्वानों ने त्वारित गति की अवधारणा विकसित की। यह अवधारणा बल को समझने के लिए सूत्रा की, बल त्र संहति ग त्वरण अग्रदूत थी। इन विद्वानों ने एक छड़ में उष्मा की मात्रा के मापने के लिए और उसे गणित की भाषा में प्रकट करने के लिए आदिम मगर महत्वपूर्ण कदम उठाये। ब्रिटिश तथा यूरोपीय विज्ञान की एक महत्वपूर्ण कसौटी सिद्धांत और अभ्यास /प्रयोग/ का समीकरण था जबकि भारतीय वैज्ञानिक ज्योतिर्विज्ञान के सिवाय अन्य क्षेत्रों की गवेषणा करने में सहजज्ञान पर भरोसा करते थे।
उदाहरण के लिए ठीक 16 वीं सदी तक भारतीय वैज्ञानिकों ने उपयोगी वैज्ञानिक निरीक्षणों को दर्ज करना जारी रखा परंतु गंभीरता से उन्हें गणितीय रूप से प्रकट करने की चेष्टा नहीं की, न अपने निरीक्षणों से प्राप्त फलों के भौतिक या रासायनिक कारणों को गहराई से खोजने की चेष्टा की। 10 वीं-11 वीं सदी में भोज ने तथा बाद में शंकर मिश्र ने चुम्बकत्व का संदर्भ दिया। 10 वीं-11 वीं सदी में उदयन ने सारे रासायनिक परिवर्तनों का उर्जा स्त्रोत सौर उष्मा को माना और गुब्बारों की चर्चा करते हुए हवा में भार होने की चर्चा अपनी कृति किरणावली में की है। 13 वीं सदी में वल्लभाचार्य ने अपनी कृति न्यायलीलावती में किसी डूबती वस्तु के प्रति जल द्वारा प्रतिरोध लगाने की ओर इशारा किया है मगर इसके आगे कोई सैद्धांतिक चर्चा नहीं की। 15 वी -16 वीं सदी में शंकर मिश्र ने स्थिर-वैद्युतिक आकर्षण के तथ्य का अवलोकन किया जब उन्होंने देखा कि घास और तिनके किस प्रकार अंबर द्वारा आकर्षित होते हैं। मगर उन्होंने इसका कारण अदृष्ट बताया। उन्होंने गतिज उर्जा की अवधारणा में भी कुछ हलचलें दर्ज कीं और अपने उपस्कर नामक ग्रंथ में उष्मा के गुणांे पर चर्चा की और क्वथन प्रक्रिया को वाष्पीकरण क्रिया से संबंधित बताने का प्रयास किया। शंकर मिश्र ने उसी पुस्तक में केश नली में द्रव की गति के उदाहरण दिए - जैसे किसी पौधे में जड़ से तने तक रस का आरोह और छिद्रमय पात्रों के भेदन की द्रवों की क्षमता। उन्होंने पृष्ठ तनाव के बारे में भी लिखा और जल के अणुओं की संसक्ति और जल के स्वयं चिकनापन का कारण उसके गाढ़ेपन को बताया।
सामाजिक पृष्ठभूमि
फिर भी, ज्योतिर्विज्ञान के विपरीत, जिसमें बहुत से भारतीय वैज्ञानिक जोर शोर से व्यस्त थे और अधिकाधिक परिशुद्धता के साथ काम करने की ओर लगे थे, अन्य क्षेत्रों में कोई ऐसी बाध्यता महसूस नहीं करते थे। भारतीय ज्योतिषी उपयोगी गणितीय सूत्रा विकसित करने और ब्रहमांड के रहस्य की गुत्थियों की अधिकाधिक गहराई से छानबीन करने को बाध्य थे परंतु वैज्ञानिक गवेषणा के अन्य क्षेत्रों में भारतीय वैज्ञानिक मात्रा सहजविवेक और सामान्य निरीक्षणों से ही संतुष्ट हो गए तथा उन्होंने काफी हद तक अस्पष्टता और अशुद्धियों को सहन कर लिया, ऐसा प्रतीत होता है। इस प्रतीयमान असंगति का उत्तर संभवतया उस समय की सामाजिक पृष्टभूमि में निहित था। ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन को अंशतः व्यवहारिक कारणों से बढ़ावा मिला जैसे मानसून के सटीक अनुमान की जरूरत और वृष्टिपात के मानचित्रा का ज्ञान। बल्कि इससे भी अधिक, शायद अच्छे फलित ज्योतिषियों की बढ़ती हुई मांग। फलित ज्योतिष के चार्ट के प्रति राजसी और व्यापारीवर्ग दोनों में पागलपन की हद तक लगाव था जिसके कारण ज्योतिर्विज्ञान के शिक्षार्थी बुद्धि जीवियों को काफी हद तक राजकीय संरक्षण मिला। यह रक्षण रसायनज्ञों को भी उपलब्ध था जो जीवन अमृत की खोज का प्रयास कर रहे थे। लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान के प्रति समर्थन जिस प्रकार 14 वीं सदी में आक्सफोर्ड में आकार ले रहा था, उसका यहां सर्वदा अभाव था।
15 वीं-16 वीं सदी में इटली में इससे अधिक भिन्न स्थिति नहीं थी। लियोनार्डो दा विंसी, 1452-1519, खास तौर पर निराश था क्योंकि उसके कई अविष्कारों में पर्याप्त रुचि जागृत नहीं हो पाई और जो साधन संपन्न थे वे खरी वैज्ञानिक गतिविधियों को नीम हकीमी और ढोंगी गतिविधियों से अलग कर के पहचान नहीं पाये। लेकिन दा विंसी को पूरा विश्वास था कि अंत में वैज्ञानिक सत्य के प्रति निष्ठा की ही जीत होगी। ’’क्योंकि प्रकृति, ऐसा लगता है उनसे बदला लेती है जो चमत्कार दिखलाते हैं और उनकी उपलब्धियां उनसे कम होती हैं जो अपेक्षाकृत मौन रहते हैं। और जो एक ही दिन में अमीर बन जाना चाहते हैं लम्बे समय तक निपट गरीबी में जीवन बितायेंगे, जैसा कि कीमियागरों, सोना चांदी बनाने की कोशिश करने वालों, उन इंजीनियरों जो निष्क्रिय जल को स्वतः स्फूर्त गति के साथ जीवांत बनाना चाहते हैं और उन महामूर्खों, जादू टोना करने वालों और मृतात्माओं से संपर्क करने वालों के साथ होता आया है और सदा होता रहेगा।’’
यद्यपि राजा भोज की रचना सोमरंगण सूत्राधार जो लगभग 1100 ई. के आसपास रची गई थी, कई उपयोगी यांत्रिक अविष्कारों का वर्णन करती है और उत्तोलक और घिरनियों के उपयोग का वर्णन भारत और मध्य पूर्व के कई अन्य उर्दू, फारसी और अरबी पुस्तकों में आया है, फिर भी यांत्रिकी, विभिन्न प्रकार के उत्तोलकों, केंटीलीवर, घिरनियों और गेयरों के संयुक्त रूप से अध्ययन, विभिन्न प्रकार के गैजेट, पुल और उड्यन के अध्ययनों पर दा विंसी के नोट्स सही मायने में पथ प्रदर्शक जैसे थे और अपने पूर्वकाल की किसी भी सिविल या यांत्रिक इंजीनियरिंग की पुस्तक की अपेक्षा अधिक जटिल और विस्तृत थे।
यद्यपि दा विंसी के कार्यकाल में उसके कार्यों की विशेष सराहना नहीं हुई, उस समय पश्चिमी यूरोप विज्ञान और तकनीकी के प्रति अपने दृष्टिकोण में एक अविस्मरणीय परिवर्तन के दौर में था। एक सदी बाद, आधुनिक वैज्ञानिक युग के प्रति संवेग महत्वपूर्ण गति से होना था और अंत में यूरोपीय पुनरुत्थान ने एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जहां दा विंसी और फ्रेंसिस बेकन के विचार जो इंग्लेंड में 15 वीं-16 वीं सदी में हुआ और जिसने विज्ञान में प्रायोगिक विधि के महत्व पर जोर दिया था, पल्लवित और पुष्पित हो पाये। लेकिन उसी समय भारत में आधुनिक विज्ञान की प्रगति में रोड़ा अटकाने वाले कई कारक मौजूद थे। यूरोप की तुलना में भारत की जलवायु मृदु थी और उस समय की जनसंख्या के अनुसार, उत्पादन जरूरत के अनुसार पर्याप्त माना जाता था। चाहे मुगलशासन हो या क्षेत्राीय शासन, वे अपने कोष का बड़ा अंश ललित कलाओं के प्रश्रय, शान शौकत और सौंदर्य से पूर्ण सजावटी वस्तुओं के उत्पादन पर खर्च करते थे। विज्ञान और तकनीकी की ओर ध्यान कम था। हां, युद्ध के औजारों में सुधार इसका अपवाद था।
धर्म का, चाहे कुरान हो या ब्राहमणवादी, बढ़ता हुआ प्रभाव भी नकारात्मक योगदान कर रहा था। एक तरफ कुरान का दावा था कि संसार के समस्त ज्ञान का उसमें वर्णन है, दूसरी ओर सनातनी ब्राहमणवाद ने मानसिक और भौतिक संसार के बीच में एक स्पष्ट सीमारेखा खींच दी और इस प्रकार वैज्ञानिकों को भावात्मक निरीक्षण, और सहज बोध से आगे, व्यवहारिक प्रयोग, सक्रिय सिद्धांतीकरण और गणितीकरण की ओर बढ़ने से रोका। यद्यपि अकबर और जहांगीर का विज्ञान के प्रति दुराव नहीं था और जहांगीर ने उद्भिज विज्ञान और प्राणिशास्त्रा की पुस्तकों में सक्रिय रुचि दिखाई, परंतु घटनात्मक वृत्तांतों से पता लगता है कि औरंगजेब का विज्ञानों के प्रति रुख संशयवादी था। यद्यपि क्षेत्राीय शासनों और उनके बाहर भी कुछ हद तक विज्ञान को संरक्षण उपलब्ध था, कीमिया, फलित ज्योतिष, शकुन-अपशकुन का अध्ययन, अंक ज्योतिष और कई अन्य अर्द्ध विवेकवादी या अविवेकवादी परम्पराओं की ओर लोग ज्यादा ध्यान देते थे और इस प्रकार शुद्ध वैज्ञानिक खोजों से विरत थे।
दूसरी ओर, यूरोपीय वैज्ञानिकों ने पूर्वी देशों /एशिया/ की सर्वोत्तम कृतियों पर ध्यान केंद्रित किया - विदेशी दस्तावेजों का समुचित श्रम के साथ अध्ययन किया। उन्होंने उन कृतियों को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया बल्कि परिणामों की सत्यता की जांच स्वयं के बनाये हुए उपकरणों और वैज्ञानिक मापन के औजारों से की। किसी समय प्राचीन भारत में भी ऐसा ही होता था किंतु कालांतर में अंदरूनी और बाहय् कारणों से भारत का वैज्ञानिक जोश क्षीण हो गया। इस प्रकार यूरोप न केवल भारत व पूर्व के ज्ञान को हासिल करने में समर्थ रहा बल्कि जल्दी ही उससे आगे निकलने में भी सफल रहा।
आजादी के बाद भारतीय वैज्ञानिकों को ज्ञान की इस खाई को संकरा करने का अवसर मिला है और कुछ क्षेत्रों में बहुत अच्छा काम हुआ है। फिर भी, जनसाधारण के लिए विज्ञान की शिक्षा की गुणवत्ता में अभी भी बहुत सुधार की जरूरत है। एक तरफ भारत में भौतिक वैज्ञानों का अध्ययन क्रियात्मक प्रदर्शनों और अधिकाधिक प्रयोगों के साथ होने की जरूरत है जैसा कि पश्चिम में साधारणतः होता है। कई मामलों में वैज्ञानिक तथ्यों का प्रदर्शन करने और उपकरणों का सुधार या आधुनिकीकरण करने की आवश्यकता है। दूसरी तरफ सहजज्ञान वाले मार्ग जो प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय विज्ञान की कसौटी रहा, की और अधिक सराहना करने की जरूरत है। कुछ प्रारंभिक सूत्राीकरणों की वैचारिक चारुता और सदृश्य उदाहरणों के माध्यम से जानकारी देना - ये भी कुछ चीजें हैं जो भारतीय परंपरा से सीखी जा सकती हैं।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि शिक्षाशास्त्रा के अनुसार, पश्चिमी मानक पुस्तकें हमेशा उपयोगी नहीं होतीं। प्रायः औसत विद्यार्थी को भौतिकी और रसायन पढ़ाना बहुत ही दुरूह हो जाता है। अधिकांश पाठ्य पुस्तकों में दुर्बोधता का अतिरेक है और अपेक्षाकृत अल्पवय छात्रों पर अनावश्यक सैद्धांतिक जटिलता थोप दी जाती है। इसके विपरीत भारतीय प्रणाली प्राकृतिक तथ्यों के अवलोकन पर जोर देती है और हर क्षेत्रा को समझने के लिए ज्ञानशास्त्राीय मार्ग का सहारा लेती है। ये तौर तरीके प्रारंभिक और मध्यवर्ती विद्यार्थियों के लिए ज्ञान को हृदयंगम करने के लिए काफी सरल हैं। एक बार विद्यार्थी ने आधारभूत वस्तुओं को समझ लिया और वैज्ञानिक तथ्यों को आत्मसात् करने का एक अच्छे सहजानुभूत रास्ते का विकास कर लिया तो उसके बाद जटिलतायें और गणितीय दुरूहताओं की बारी आ सकती है और भौतिक विज्ञानों का संसार मात्रा कुछ लोगों की अपेक्षा, जो आज विज्ञान की इन शाखाओं के अध्ययन में आने वाली जटिलताओं और कठनाईयों पर पार पा सकते हैं, अधिक लोगों के लिए खुल जाएगा।
संदर्भः
1.दा पाजीटिव साइंसेज आॅफ दा ऐंसियेंट हिंदूज - ब्रजेंद्रनाथ सील,
2.कंसाइज़ हिस्ट्र्ी आॅफ साइंस इन इंडिया - बोस, सेन, सुबारायप्पा; इंडियन नेशनल साइंस एकाडेमी,
3.स्टडीज़ इन दा हिस्ट्र्ी आॅफ साइंस इन इंडिया - देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय द्वारा संपादित चयनिका,
4.काॅजे़शन इन इंडियन फिलासफी - महेशचंद्र भारतीय, विमल प्रकाशन, गाजियाबाद।
संबंधित पृष्ठः
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भारत में में तकनीकी खोजें और उनके उपयोग,
प्राचीन भारत में दार्शनिक विचार और वैज्ञानिक तरीकों का विकास,
उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास।
भारत में रसायन के प्रारंभिक प्रयोग, औषधि, धातुकर्म, निर्माणशिल्प जैसे सीमेंट और रंगों के उत्पादन, वस्त्रा उत्पादन और रंगाई के संदर्भ में हुए। रासायनिक प्रक्रियाओं को समझने के दौरान पदार्थ के मूल तत्वों की व्याख्या करने में भी रुचि उत्पन्न हुई कि वे किन वस्तुओं के मेल से बने और किस प्रकार उनके आपसी मेल से नई वस्तुयें बनती थीं। समुद्री ज्वार, वृष्टिपात, सूर्य का स्वरूप, चंद्रमा और तारों के निर्माण, मौसम में परिवर्तन, ऋतुओं की रूपरेखा और कृषि आदि के संदर्भ में प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन हुआ। उदाहरणार्थ - वैदिक साहित्य में वर्णित है कि किस प्रकार सूर्य के ताप से समुद्र और सागरों से जल का वाष्पीकरण और संघनन होकर बादलों का निर्माण और वर्षा होती है। स्पष्ट है कि इनसे भौतिक प्रक्रियाओं और प्राकृतिक शक्तियों के बारे में उन सिद्धांतों तक पहुंचा जा सका जिनका रसायन और भौतिकी के क्षेत्रा में विशिष्ट शीर्षकों के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है।
दर्शन और भौतिक विज्ञान
यह कहना कठिन है कि पहले सिद्धांत आया या उसका उपयोग। स्पष्टतः दोनों में एक द्वंदात्मक संबंध है और दोनों में से किसी की भी अवहेलना करने से विज्ञान की इति हो जाती है। धार्मिक विश्वास, विशेषतः धार्मिक निषेध और रहस्यात्मक या जादुई घटनाओं के लिए प्रतिपादित अबौद्धिक सिद्धांत या गलत अंधविश्वासों के प्रति लगाव प्रायः विज्ञान की प्रगति में गंभीर रूप से बाधक हो सकते हैं और भौतिक घटनाओं के क्यों और कैसे की खोज में महत्वपूर्ण योगदान करने से रोक सकते हैं।
वे समाज जिनका विश्वास था कि प्रकृति के रहस्यों को केवल देवता ही जान सकते हैं अतएव मनुष्य द्वारा ब्रहमांड के रहस्यों की गुत्थी सुलझाने का प्रयास निरर्थक है, स्पष्ट है कि वे समाज विज्ञान की दुनिया में कोई उल्लेखनीय प्रगति करने में असमर्थ रहे हैं। उन समाजों में भी जहां विश्व की वास्तविक घटनाओं को वैज्ञानिक तरीके से समझने के मार्ग में कोई धार्मिक निषेध नहीं था, पुरोहितों की सत्ता और प्रभाव वैज्ञानिक प्रगति के मार्ग में अवरोध बन सकती थी। उदाहरणार्थ ऐसे समाज में जहां अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करने के लिए केवल कर्मकाण्डीय गतिविधियां पर्याप्त समझी जाती हों, स्वाभाविक है कि प्रकृति के गुणों और नियमों के बारे में गंभीर गंवेषणा करने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती।
प्राचीन भारत लगभग पहले प्रकार के दुर्भाग्य - विज्ञान का धर्म द्वारा विरोध से पीड़ित नहीं था परंतु दूसरे प्रकार की त्राुटि - कर्मकाण्डों और अंधविश्वासों के प्रसार से ग्रस्त था। इस प्रकार भारत में विज्ञान का प्रसार अनिवार्य रूप से पुरोहितों के वर्चस्व को चुनौती देता था और कर्मकाण्डों और बलिप्रथा के प्रसार के रास्ते में बाधक था। कम से कम यह तर्क प्रस्तुत करना जरूरी था कि अभीष्ट फल प्राप्ति के लिए कर्मकाण्ड अपर्याप्त थे और यह कि मानव की नियति को आकार देने के लिए विश्व का विवेक सम्मत निरीक्षण कुछ हद तक आवश्यक था। इसलिए यह कोई संयोग नहीं था कि विज्ञान और तकनीक का विकास, भारत में विवेकवादी दर्शन के विकास के समानान्तर हुआ। देखिएः ’’प्राचीन भारत में दार्शनिक विचार और वैज्ञानिक तरीकों का विकास’’।
प्राचीनतम वैज्ञानिक ग्रंथों, जैसे कि विशेषिक में, जो 6 वीं सदी ई.पू. या संभवतः और पहले की रचना है - देेखिएः ’’उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास’’ - में विभिन्न प्रकार के पौधों और प्राकृतिक वस्तुओं के भौतिक गुणों को लिपिबद्ध करने का प्रारंभिक प्रयास किया गया। प्राकृतिक घटनाओं का निरीक्षण करके उनका वर्गीकरण और संक्षेप में उनका वर्णन करने का भी प्रयास किया गया। उसके बाद पदार्थ की संरचना और उनके भौतिक व्यवहार के बारे में सिद्धांत प्रतिपादित किया गया और उनके लिए सूत्रा विकसित किए गए। इस प्रकार यद्यपि भारत में भौतिकी और रसायन के प्राचीनतम प्रयोग - जैसा कि अन्य प्राचीन समाजों में भी हुआ, विज्ञान की इन शाखाओं के सैद्धांतिक ज्ञान या जानकारी के अभाव में ही हुए। इन प्रारंभिक विवेक सम्मत ग्रंथों में वैज्ञानिक गवेषणा और वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण के तत्व विद्यमान थे। यद्यपि ये कदम प्रारंभिक और काम चलाउ थे, फिर भी, भौतिकी, रसायन, उद्भिज विज्ञान, जीव विज्ञान और अन्य भौतिक विज्ञानांे में आज के स्तर के ज्ञान तक मानवता को पहुंचने के लिए बहुत ही आवश्यक थे।
कणभौतिकी
यद्यपि कणभौतिकी आधुनिक भौतिकी की सर्वाधिक विकसित और सर्वाधिक जटिल शाखाओं में से एक है, प्राचीनतम परमाणु सिद्धांत कम से कम 2500 वर्ष पुराना है। भारत में दर्शन की लगभग हर विवेकसम्मत विचारधारा में चाहे वह हिंदू, जैन या बौद्ध हो, मूलकणों की प्रकृति के संबंध में कुछ न कुछ आख्यान है और इन विभिन्न विचारधाराओं ने इस विचार को प्रसारित किया कि पदार्थ परमाणुओं द्वारा संरचित है जो अविभाज्य और अनश्वर है। देखिएः ’’उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास’’। परवर्ती दार्शनिकों ने इस विचारधारा को और आगे बढ़ाते हुए प्रतिपादित किया कि परमाणु केवल जोड़े में ही नहीं वरन् तिकड़ी में भी संयुक्त हो सकते थे और यह कि युग्म और तिकड़ी में उनकी पास-पास सजावट ही प्रकृति में प्राप्त वस्तुओं के विभिन्न भौतिक गुणों के लिए जिम्मेवार थी। जैनों ने यह भी प्रतिपादित किया कि परमाणुओं के संयोजन के लिए संयुक्त होने वाले परमाणुओं में विशिष्ट गुणों की आवश्यकता है तथा आवश्यकता है अलग से एक उत्प्रेरक परमाणु की। इस प्रकार प्रारंभिक परमाणु सिद्धांत पदार्थ के अणु सिद्धांत में परिवर्तित हो गए। यद्यपि इन सिद्धांतों के कई वर्णन वैज्ञानिक यथार्थ की कसौटी पर आज खरे नहीं उतरते तथापि इन सूत्रों में बहुत कुछ ऐसा है जो अपने समय से काफी आगे है और परिमार्जित है।
/यद्यपि यह महज एक संयोग हो सकता है, लेकिन जैनों का आणविक सिद्धांत भैषज या धातुकर्म जैसे अन्य क्षेत्रों में हुई व्यवहारिक उन्नतियों के समानान्तर हुआ। धातुओं में उप्प्रेरकों के महत्वपूर्ण योग में देखा गया और सावधानी से लिपिबद्ध हुआ। भारतीय भैषज ग्रंथों में प्रतिपादित किया गया कि मानव शरीर में समुचित पाचन के लिए और औषधियों तथा काढ़ों के सफल अवशोषण के लिए भी उत्प्रेरक वस्तुओं की आवश्यकता है। भैषज विज्ञान और शल्य उपयोगों के संदर्भ में अम्लों और क्षारों के निर्माण हेतु उत्प्रेरक वस्तुओं की जरूरत को रेखांकित किया गया, ठीक वैसे ही जैसे कि धातुकर्म की प्रक्रियाओं और पक्के रंग वाले रोगनों के निर्माण में उपयुक्त उत्प्रेरकों के योगदान को। /आज उत्प्रेरकों की मदद से होने वाली प्रक्रियाओं के बारे में हम बहुत कुछ जानते हैं; विविध प्रकार के खनिजों, विटामिनों और एंजाइमों की पहचान कर ली गई है जो हमारे शरीर के अंदर होने वाली महत्वपूर्ण रासायनिक प्रक्रियाओं की श्रंृखला में उत्प्रेरकों के रूप में महत्वपूर्ण योगदान उसी प्रकार करते हैं जैसे कि अन्य भौतिक प्रक्रियाओं में उत्प्रेरक यौगिक करते हैं।/
उष्मा द्वारा होने वाले रासायनिक परिवर्तनों की व्याख्या करने के लिए भी परमाणु तथा अणु सिद्धांतों का उपयोग किया गया यद्यपि ऐसा अनुमानतः किया गया। प्रशस्तपाद ने प्रस्तावित किया कि तेजस /उष्मा/ अवयव अणु-व्यूहों को प्रभावित करता है जिससे रासायनिक परिवर्तन होते हैं। इस प्रक्रिया की विस्तृत व्याख्या के लिए दो प्रतिस्पर्धी सिद्धांत प्रस्तुत हुए जिसका प्रयोग मृदभाण्डों को अग्नि द्वारा पकाने / रंगने की प्रक्रिया की व्याख्या में किया गयाः पीलुपाकवाद सिद्धांत जिसका प्रस्ताव वैशेषिकों ने रखा मानता था कि उष्मा के प्रयोग से परमाणु की व्यूह रचना बदल जाती है जिससे नए अणुओं और भिन्न रंग का निर्माण होता है। पीठारपादवाद सिद्धांत जिसे न्यायदर्शन के अनुयायियों ने विकसित किया इससे असहमत होते हुए कहता था कि आणुविक परिवर्तन अथवा नई संरचना होती अवश्य है परंतु बिना प्रारंभिक अणुओं के मूल-परमाणुओं में विघटित हुए, क्योंकि यदि ऐसा होता तो मृदभाण्ड भी विघटित हो जाता; परंतु मृदभाण्ड तो समूचा रहता है, केवल रंग में ही परिवर्तन होता है।
गतिज उर्जा की एक अवचेतनात्मक समझ प्रशस्तपाद और न्याय-वैशेषिकों के ग्रंथों में मिलती है जिसके अनुसार सारे परमाणु निरंतर गतिशील अवस्था में रहते हैं। ऐसी आणविक-परमाणविक गतियां, चाहे वह घूर्णन हो या वृत्ताकार गति या हारमोनिक गति, के वर्णन के लिए उन्होंने परिस्पंद की परिकल्पना प्रस्तुत की।
प्रकाश और ध्वनि
प्रारंभिक भारतीय विवेकवादियों ने प्रकाश और ध्वनि के स्वभाव के बारे में सिद्धांत प्रस्तुत करने की कोशिश की। प्राचीन यूनानियों की भांति प्राचीन भारतीय दार्शनिक भी आंख को प्रकाश का स्त्रोत् मानते थे और यह गलतफहमी पहली सदी तक कायम रही जब तक सुश्रुत ने यह प्रतिपादित नहीं कर दिया कि किसी बाहरी स्त्रोत से आने वाला प्रकाश हमारे चक्षु-पटल पर पड़कर हमारे चारों ओर के विश्व को प्रकाशित करता है। 5 वीं सदी में आर्यभट ने भी इसकी पुष्टि की। अन्य मामलों में, प्रारंभिक दार्शनिकों की बातें बहुत सटीक थीं। चक्रपाणि ने बताया कि ध्वनि और प्रकाश दोनों की गति लहरों के रूप में होती है परंतु प्रकाश की गति अपेक्षाकृत बहुत तीव्र होती है। अन्य लोगों ने, जैसे कि मीमांसकों ने कल्पना की कि प्रकाश बहुत सूक्ष्म कणों से बना है /आजकल उसे फोटान कहते हैं/ जो निरंतर गतिमान रहते हैं और मूल-स्त्रोत से उनका निरंतर विकिरण और डिफ्यूजन होता रहता है।
ध्वनि का लहर जैसा स्वभाव प्रशस्तपाद द्वारा भी वर्णित किया गया है। उन्होंने परिकल्पित किया कि जिस प्रकार पानी में लहरों की गति होती है वैसे ही ध्वनि हवा में बढ़ते हुए वृत्तों के रूप में चलती है। ध्वनि का परावर्तन अपने ढंग का ही होता है जिसे प्रतिध्वनि कहा जाता है। संगीत की श्रुतियों के बारे में कहा गया है कि इनका कारण कंपन का परिणाम और बारंबारता है। स्वर के बारे में विश्वास किया जाता था कि यह श्रुति /मूल स्वर/ और कुछ अनुरनन /आंशिक स्वरों या हारमोनिक्स/ के संयोग से बनते हैं। कुछ परिकल्पनाओं यथा जाति व्यक्तोखि तादात्म्यस् /स्वर के प्रकार और जातियां/ परिणाम /मूलभूत बारंबारता का परिवर्तन/, व्यंजना /ओवरटोन का प्रदर्शन, विवतर््न /ध्वनि का परावर्तन/ और कार्यकारण भाव /ध्वनि का कारण और प्रभाव/ के आधार पर संगीत सिद्धांत की व्याख्या की गई।
6 वीं सदी में वाराहमिहिर ने परावर्तन की व्याख्या करते हुए बताया कि प्रकाश के कण किसी वस्तु पर पड़कर वापिस छिटक जाते हैं जिसे किरण विघट्टन या मूच्र्छना कहा जाता हैः यही प्रकाश का परावर्तन है। वात्स्यायन ने इस घटना को रश्मि परावर्तन का नाम दिया। इस धारणा को अंगीकार करके छाया बनने और वस्तुओं की अपारदर्शिता की व्याख्या की गई। आवर्तन के बारे में यह कहा गया कि इसका कारण अर्धपारदर्शी और पारदर्शी वस्तुओं के अंतः स्थानों को भेदने की प्रकाश की क्षमता है और उद्दोतकार ने इसकी तुलना उन द्रव्यों से की जो छिद्रयुक्त वस्तुओं से गुजरते हैं - तत्रा परिस्पंदः तिर्यग्गमनम् परिश्रवः पातयति।
/अल हयाथम् ने जो बसरा में जन्मा था और जिसने 10 वीं सदी में काहिरा को अपना कार्यक्षेत्रा बनाया था संभवतः आर्यभट की रचनाओं से परिचित था। उसने आप्टिक्स के बारे में एक और अधिक उन्नत सिद्धांत प्रस्तुत करते हुए प्रकाश किरणों की मदद से चित्रा द्वारा परावर्तन और आवर्तन की अभिकल्पनाओं की व्याख्या की। आवर्तन के नियमों की व्याख्या के लिए तथा प्रकाश किरणें विभिन्न पदार्थाें में अलग अलग गति से चलतीं हैं जिसके कारण आवर्तन की घटना होती है इस बात को समझाने के लिए वह विशेष तौर पर जाना जाता है।/
ज्योतिर्विज्ञान और भौतिकी
ठीक जैसे गणित के अध्ययन को ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन से बल मिला वैसे ही भौतिकी के अध्ययन को भी मिला। जैसा कि गणित वाले लेख में बताया गया है, आर्यभट ने 5 वीं सदी से 6 वीं सदी में ग्रहों की गति के क्षेत्रा में गवेषणा का मार्ग प्रशस्त किया। इससे आकाश और काल-मापक इकाईयों की परिभाषा और गुरूत्वाकर्षण, गति और वेग की अवधारणाओं की बेहतर समझ का विकास हुआ।
/उदाहरणार्थ यतिबृषभ की कृति तिलोयपन्नति में, जो 6 वीं सदी में रची गई थी, काल और दूरी माप के लिए विभिन्न इकाईयों का वर्णन है और असीम काल की माप के लिए भी एक प्रणाली का वर्णन है। इससे भी महत्वपूर्ण है वाचस्पति मिश्र द्वारा लगभग 840 ई. के आसपास ठोस ज्यामिति / त्रिविमीय अक्षीय ज्यामिति की अभिकल्पना, जिसका अविष्कार दे कार्तस ने 1644 ई. में किया था। न्याय शुचि निबंध में वे लिखते हैं कि आकाश में किसी भी कण की स्थिति की एक दूसरे कण की स्थिति के संदर्भ में तीन काल्पनिक अक्षों के सहारे गणना की जा सकती है।/
ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन से काल और आकाश की बहुत बड़ी और बहुत छोटी इकाईयों की रचना में काफी रुचि जागृत हुई। एक सौर दिन 1944000 क्षणांे के बराबर होता है, यह न्याय-वैशेषिकों का कथन था। इस प्रकार एक क्षण 0.044 सेकिंड के बराबर हुआ। काल के न्यूनतम माप त्राुटि को परिभाषित किया गया जो 2.9623 गुणा 10 वर्ग 4 के बराबर थी। शिल्पशास्त्रा में लम्बाई की न्यूनतम माप परमाणु मानी गई है जो 1 बटा 349525 इंच के बराबर है। यह माप न्याय-वैशेषिक की न्यूनतम मुटाई - त्रासरेणु से मेल खाती है - जो अंधेरे कमरे में चमकने वाली धूप के पुंज की सूक्ष्मतम कण के बराबर है। 6 वीं सदी के आसपास वाराहमिहिर ने अभिकल्पित किया था कि 86 त्रासरेणु मिलकर एक अंगुलि अर्थात् 3/4 इंच के बराबर हैं। उसने यह भी बताया कि 64 त्रासरेणु मिलकर बाल की मोटाई के बराबर हैं।/
गति के नियम
यद्यपि वैशेषिकों ने विभिन्न प्रकार की गतियों का वर्गीकरण करने का प्रयास किया, 7 वीं सदी में प्रशस्तपाद ने इस विषय पर अध्ययन को काफी आगे बढ़ाया। उसकी दी गई कई परिभाषाओं से प्रतीत होता है कि उसकी कुछ अभिकल्पनायें ग्रहों की गति से उपजी हैं। रैखिक गति के अतिरिक्त प्रशस्तपाद ने वक्रीय गति - गमन, परिक्रमा वाली गति - भ्रमण और कंपन गति का भी वर्णन किया है। उसने गुरूत्वशक्ति या द्रव्यों के बहाव के फलस्वरूप होने वाली गति तथा किसी बाहय् क्रिया के फलस्वरूप होने वाली गति में अंतर भी बताया है।
वह लचीलापन या संवेग के फलस्वरूप होने वाली गति से या बाहय् बल की प्रतिक्रिया के कारण होने वाली गति से भी परिचित था। उसने यह भी नोट किया कि कुछ प्रकार की क्रियाओं से एक जैसी गति होती है, कुछ प्रकार की क्रियाओं से विपरीत दिशा में गति होती है और कभी-कभी कोई गति नहीं होती तथा इन विभिन्नताओं का कारण है परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया करने वाली वस्तुओं के अंदर निहित गुण।
प्रशस्तपाद ने यह भी पाया कि किसी भी एक काल में एक कण में एक ही गति हो सकती है /यद्यपि एक वस्तु उदाहरणार्थ कंपायमान पत्रा /ब्लोइंग लीफ/ जिसमें कणों की बड़ी संख्या होती है, में होने वाली गति अधिक जटिल प्रकार की होगी क्योंकि विभिन्न कण अलग-अलग प्रकार से गति कर रहे होंगे। यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा थी जिससे आगे चलकर गति के नियमों को गणित के सूत्रों में बांधने में मदद मिली।
10 वीं सदी में श्रीधर ने प्रशस्तपाद के निरीक्षणों की पुष्टि की और उसने जो कुछ निरीक्षण के बाद लिखा था उसका विस्तार किया। 12 वीं सदी में भास्कराचार्य ने अपनी कृतियों, सिद्धांत शिरोमणि और गणिताध्याय में गणितीकरण की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम उठाया और औसत वेग की माप इस प्रकार की अ त्र े ध् ज /जहां अ त्र औसत वेग, े त्र चली गई कुल दूरी और ज त्र समय।/
अपने समय के हिसाब से, प्रशस्तपाद के कार्य और बाद में, श्रीधर और भास्कराचार्य द्वारा उनकी व्याख्या को बहुत महत्वपूर्ण मानना चाहिए था। मगर, भारतीय ग्रंथों की एक बड़ी कमजोरी थी कि बाद में उनका गणितीकरण और अवधारणाओं की व्याख्या का आगे प्रयास न करना। उदाहरणार्थ गति के कई प्रकार के लिए अज्ञात कारणों को जिम्मेवार माना गया। परंतु इन समस्याओं को हल करने की कोई कोशिश आगे नहीं हुई और न यह अनुभव किया गया कि गति के विभिन्न प्रकारों के पीछे अदृश्य कारणों के लिए सामान्य तौर पर कोई अवधारणा प्रस्तुत करने की जरूरत है, विधिक तौर पर उन्हें परिभाषित करने और एक मौलिक तरीके से उन्हें प्रगट करने की आवश्यकता है, जैसा कि कुछ सदियों बाद न्यूटन ने एक गणितीय सू़त्रा के माध्यम से किया।
प्रयोग बनाम सहजज्ञान
वास्तव में, गति के अध्ययन में अगला बड़ा कदम इंग्लेंड में उठना था, जहां वैज्ञानिक गवेषणा के लिए रोजर बेकन, 13 वीं सदी, जैसे लोगों ने जमीन तैयार की थी। उसने शिक्षा प्राप्ति के रास्ते में रोड़े गिनाये - सत्ता के प्रति /आवश्यकता से अधिक/ सम्मान, अभ्यस्तता का बल, आध्यात्मविद्या संबंधी दुराग्रह और ज्ञान की गलत अवधारणा। एक सदी बाद आक्सफोर्ड के मर्टन विद्वानों ने त्वारित गति की अवधारणा विकसित की। यह अवधारणा बल को समझने के लिए सूत्रा की, बल त्र संहति ग त्वरण अग्रदूत थी। इन विद्वानों ने एक छड़ में उष्मा की मात्रा के मापने के लिए और उसे गणित की भाषा में प्रकट करने के लिए आदिम मगर महत्वपूर्ण कदम उठाये। ब्रिटिश तथा यूरोपीय विज्ञान की एक महत्वपूर्ण कसौटी सिद्धांत और अभ्यास /प्रयोग/ का समीकरण था जबकि भारतीय वैज्ञानिक ज्योतिर्विज्ञान के सिवाय अन्य क्षेत्रों की गवेषणा करने में सहजज्ञान पर भरोसा करते थे।
उदाहरण के लिए ठीक 16 वीं सदी तक भारतीय वैज्ञानिकों ने उपयोगी वैज्ञानिक निरीक्षणों को दर्ज करना जारी रखा परंतु गंभीरता से उन्हें गणितीय रूप से प्रकट करने की चेष्टा नहीं की, न अपने निरीक्षणों से प्राप्त फलों के भौतिक या रासायनिक कारणों को गहराई से खोजने की चेष्टा की। 10 वीं-11 वीं सदी में भोज ने तथा बाद में शंकर मिश्र ने चुम्बकत्व का संदर्भ दिया। 10 वीं-11 वीं सदी में उदयन ने सारे रासायनिक परिवर्तनों का उर्जा स्त्रोत सौर उष्मा को माना और गुब्बारों की चर्चा करते हुए हवा में भार होने की चर्चा अपनी कृति किरणावली में की है। 13 वीं सदी में वल्लभाचार्य ने अपनी कृति न्यायलीलावती में किसी डूबती वस्तु के प्रति जल द्वारा प्रतिरोध लगाने की ओर इशारा किया है मगर इसके आगे कोई सैद्धांतिक चर्चा नहीं की। 15 वी -16 वीं सदी में शंकर मिश्र ने स्थिर-वैद्युतिक आकर्षण के तथ्य का अवलोकन किया जब उन्होंने देखा कि घास और तिनके किस प्रकार अंबर द्वारा आकर्षित होते हैं। मगर उन्होंने इसका कारण अदृष्ट बताया। उन्होंने गतिज उर्जा की अवधारणा में भी कुछ हलचलें दर्ज कीं और अपने उपस्कर नामक ग्रंथ में उष्मा के गुणांे पर चर्चा की और क्वथन प्रक्रिया को वाष्पीकरण क्रिया से संबंधित बताने का प्रयास किया। शंकर मिश्र ने उसी पुस्तक में केश नली में द्रव की गति के उदाहरण दिए - जैसे किसी पौधे में जड़ से तने तक रस का आरोह और छिद्रमय पात्रों के भेदन की द्रवों की क्षमता। उन्होंने पृष्ठ तनाव के बारे में भी लिखा और जल के अणुओं की संसक्ति और जल के स्वयं चिकनापन का कारण उसके गाढ़ेपन को बताया।
सामाजिक पृष्ठभूमि
फिर भी, ज्योतिर्विज्ञान के विपरीत, जिसमें बहुत से भारतीय वैज्ञानिक जोर शोर से व्यस्त थे और अधिकाधिक परिशुद्धता के साथ काम करने की ओर लगे थे, अन्य क्षेत्रों में कोई ऐसी बाध्यता महसूस नहीं करते थे। भारतीय ज्योतिषी उपयोगी गणितीय सूत्रा विकसित करने और ब्रहमांड के रहस्य की गुत्थियों की अधिकाधिक गहराई से छानबीन करने को बाध्य थे परंतु वैज्ञानिक गवेषणा के अन्य क्षेत्रों में भारतीय वैज्ञानिक मात्रा सहजविवेक और सामान्य निरीक्षणों से ही संतुष्ट हो गए तथा उन्होंने काफी हद तक अस्पष्टता और अशुद्धियों को सहन कर लिया, ऐसा प्रतीत होता है। इस प्रतीयमान असंगति का उत्तर संभवतया उस समय की सामाजिक पृष्टभूमि में निहित था। ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन को अंशतः व्यवहारिक कारणों से बढ़ावा मिला जैसे मानसून के सटीक अनुमान की जरूरत और वृष्टिपात के मानचित्रा का ज्ञान। बल्कि इससे भी अधिक, शायद अच्छे फलित ज्योतिषियों की बढ़ती हुई मांग। फलित ज्योतिष के चार्ट के प्रति राजसी और व्यापारीवर्ग दोनों में पागलपन की हद तक लगाव था जिसके कारण ज्योतिर्विज्ञान के शिक्षार्थी बुद्धि जीवियों को काफी हद तक राजकीय संरक्षण मिला। यह रक्षण रसायनज्ञों को भी उपलब्ध था जो जीवन अमृत की खोज का प्रयास कर रहे थे। लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान के प्रति समर्थन जिस प्रकार 14 वीं सदी में आक्सफोर्ड में आकार ले रहा था, उसका यहां सर्वदा अभाव था।
15 वीं-16 वीं सदी में इटली में इससे अधिक भिन्न स्थिति नहीं थी। लियोनार्डो दा विंसी, 1452-1519, खास तौर पर निराश था क्योंकि उसके कई अविष्कारों में पर्याप्त रुचि जागृत नहीं हो पाई और जो साधन संपन्न थे वे खरी वैज्ञानिक गतिविधियों को नीम हकीमी और ढोंगी गतिविधियों से अलग कर के पहचान नहीं पाये। लेकिन दा विंसी को पूरा विश्वास था कि अंत में वैज्ञानिक सत्य के प्रति निष्ठा की ही जीत होगी। ’’क्योंकि प्रकृति, ऐसा लगता है उनसे बदला लेती है जो चमत्कार दिखलाते हैं और उनकी उपलब्धियां उनसे कम होती हैं जो अपेक्षाकृत मौन रहते हैं। और जो एक ही दिन में अमीर बन जाना चाहते हैं लम्बे समय तक निपट गरीबी में जीवन बितायेंगे, जैसा कि कीमियागरों, सोना चांदी बनाने की कोशिश करने वालों, उन इंजीनियरों जो निष्क्रिय जल को स्वतः स्फूर्त गति के साथ जीवांत बनाना चाहते हैं और उन महामूर्खों, जादू टोना करने वालों और मृतात्माओं से संपर्क करने वालों के साथ होता आया है और सदा होता रहेगा।’’
यद्यपि राजा भोज की रचना सोमरंगण सूत्राधार जो लगभग 1100 ई. के आसपास रची गई थी, कई उपयोगी यांत्रिक अविष्कारों का वर्णन करती है और उत्तोलक और घिरनियों के उपयोग का वर्णन भारत और मध्य पूर्व के कई अन्य उर्दू, फारसी और अरबी पुस्तकों में आया है, फिर भी यांत्रिकी, विभिन्न प्रकार के उत्तोलकों, केंटीलीवर, घिरनियों और गेयरों के संयुक्त रूप से अध्ययन, विभिन्न प्रकार के गैजेट, पुल और उड्यन के अध्ययनों पर दा विंसी के नोट्स सही मायने में पथ प्रदर्शक जैसे थे और अपने पूर्वकाल की किसी भी सिविल या यांत्रिक इंजीनियरिंग की पुस्तक की अपेक्षा अधिक जटिल और विस्तृत थे।
यद्यपि दा विंसी के कार्यकाल में उसके कार्यों की विशेष सराहना नहीं हुई, उस समय पश्चिमी यूरोप विज्ञान और तकनीकी के प्रति अपने दृष्टिकोण में एक अविस्मरणीय परिवर्तन के दौर में था। एक सदी बाद, आधुनिक वैज्ञानिक युग के प्रति संवेग महत्वपूर्ण गति से होना था और अंत में यूरोपीय पुनरुत्थान ने एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जहां दा विंसी और फ्रेंसिस बेकन के विचार जो इंग्लेंड में 15 वीं-16 वीं सदी में हुआ और जिसने विज्ञान में प्रायोगिक विधि के महत्व पर जोर दिया था, पल्लवित और पुष्पित हो पाये। लेकिन उसी समय भारत में आधुनिक विज्ञान की प्रगति में रोड़ा अटकाने वाले कई कारक मौजूद थे। यूरोप की तुलना में भारत की जलवायु मृदु थी और उस समय की जनसंख्या के अनुसार, उत्पादन जरूरत के अनुसार पर्याप्त माना जाता था। चाहे मुगलशासन हो या क्षेत्राीय शासन, वे अपने कोष का बड़ा अंश ललित कलाओं के प्रश्रय, शान शौकत और सौंदर्य से पूर्ण सजावटी वस्तुओं के उत्पादन पर खर्च करते थे। विज्ञान और तकनीकी की ओर ध्यान कम था। हां, युद्ध के औजारों में सुधार इसका अपवाद था।
धर्म का, चाहे कुरान हो या ब्राहमणवादी, बढ़ता हुआ प्रभाव भी नकारात्मक योगदान कर रहा था। एक तरफ कुरान का दावा था कि संसार के समस्त ज्ञान का उसमें वर्णन है, दूसरी ओर सनातनी ब्राहमणवाद ने मानसिक और भौतिक संसार के बीच में एक स्पष्ट सीमारेखा खींच दी और इस प्रकार वैज्ञानिकों को भावात्मक निरीक्षण, और सहज बोध से आगे, व्यवहारिक प्रयोग, सक्रिय सिद्धांतीकरण और गणितीकरण की ओर बढ़ने से रोका। यद्यपि अकबर और जहांगीर का विज्ञान के प्रति दुराव नहीं था और जहांगीर ने उद्भिज विज्ञान और प्राणिशास्त्रा की पुस्तकों में सक्रिय रुचि दिखाई, परंतु घटनात्मक वृत्तांतों से पता लगता है कि औरंगजेब का विज्ञानों के प्रति रुख संशयवादी था। यद्यपि क्षेत्राीय शासनों और उनके बाहर भी कुछ हद तक विज्ञान को संरक्षण उपलब्ध था, कीमिया, फलित ज्योतिष, शकुन-अपशकुन का अध्ययन, अंक ज्योतिष और कई अन्य अर्द्ध विवेकवादी या अविवेकवादी परम्पराओं की ओर लोग ज्यादा ध्यान देते थे और इस प्रकार शुद्ध वैज्ञानिक खोजों से विरत थे।
दूसरी ओर, यूरोपीय वैज्ञानिकों ने पूर्वी देशों /एशिया/ की सर्वोत्तम कृतियों पर ध्यान केंद्रित किया - विदेशी दस्तावेजों का समुचित श्रम के साथ अध्ययन किया। उन्होंने उन कृतियों को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया बल्कि परिणामों की सत्यता की जांच स्वयं के बनाये हुए उपकरणों और वैज्ञानिक मापन के औजारों से की। किसी समय प्राचीन भारत में भी ऐसा ही होता था किंतु कालांतर में अंदरूनी और बाहय् कारणों से भारत का वैज्ञानिक जोश क्षीण हो गया। इस प्रकार यूरोप न केवल भारत व पूर्व के ज्ञान को हासिल करने में समर्थ रहा बल्कि जल्दी ही उससे आगे निकलने में भी सफल रहा।
आजादी के बाद भारतीय वैज्ञानिकों को ज्ञान की इस खाई को संकरा करने का अवसर मिला है और कुछ क्षेत्रों में बहुत अच्छा काम हुआ है। फिर भी, जनसाधारण के लिए विज्ञान की शिक्षा की गुणवत्ता में अभी भी बहुत सुधार की जरूरत है। एक तरफ भारत में भौतिक वैज्ञानों का अध्ययन क्रियात्मक प्रदर्शनों और अधिकाधिक प्रयोगों के साथ होने की जरूरत है जैसा कि पश्चिम में साधारणतः होता है। कई मामलों में वैज्ञानिक तथ्यों का प्रदर्शन करने और उपकरणों का सुधार या आधुनिकीकरण करने की आवश्यकता है। दूसरी तरफ सहजज्ञान वाले मार्ग जो प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय विज्ञान की कसौटी रहा, की और अधिक सराहना करने की जरूरत है। कुछ प्रारंभिक सूत्राीकरणों की वैचारिक चारुता और सदृश्य उदाहरणों के माध्यम से जानकारी देना - ये भी कुछ चीजें हैं जो भारतीय परंपरा से सीखी जा सकती हैं।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि शिक्षाशास्त्रा के अनुसार, पश्चिमी मानक पुस्तकें हमेशा उपयोगी नहीं होतीं। प्रायः औसत विद्यार्थी को भौतिकी और रसायन पढ़ाना बहुत ही दुरूह हो जाता है। अधिकांश पाठ्य पुस्तकों में दुर्बोधता का अतिरेक है और अपेक्षाकृत अल्पवय छात्रों पर अनावश्यक सैद्धांतिक जटिलता थोप दी जाती है। इसके विपरीत भारतीय प्रणाली प्राकृतिक तथ्यों के अवलोकन पर जोर देती है और हर क्षेत्रा को समझने के लिए ज्ञानशास्त्राीय मार्ग का सहारा लेती है। ये तौर तरीके प्रारंभिक और मध्यवर्ती विद्यार्थियों के लिए ज्ञान को हृदयंगम करने के लिए काफी सरल हैं। एक बार विद्यार्थी ने आधारभूत वस्तुओं को समझ लिया और वैज्ञानिक तथ्यों को आत्मसात् करने का एक अच्छे सहजानुभूत रास्ते का विकास कर लिया तो उसके बाद जटिलतायें और गणितीय दुरूहताओं की बारी आ सकती है और भौतिक विज्ञानों का संसार मात्रा कुछ लोगों की अपेक्षा, जो आज विज्ञान की इन शाखाओं के अध्ययन में आने वाली जटिलताओं और कठनाईयों पर पार पा सकते हैं, अधिक लोगों के लिए खुल जाएगा।
संदर्भः
1.दा पाजीटिव साइंसेज आॅफ दा ऐंसियेंट हिंदूज - ब्रजेंद्रनाथ सील,
2.कंसाइज़ हिस्ट्र्ी आॅफ साइंस इन इंडिया - बोस, सेन, सुबारायप्पा; इंडियन नेशनल साइंस एकाडेमी,
3.स्टडीज़ इन दा हिस्ट्र्ी आॅफ साइंस इन इंडिया - देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय द्वारा संपादित चयनिका,
4.काॅजे़शन इन इंडियन फिलासफी - महेशचंद्र भारतीय, विमल प्रकाशन, गाजियाबाद।
संबंधित पृष्ठः
भारत में गणित का इतिहास,
भारत में में तकनीकी खोजें और उनके उपयोग,
प्राचीन भारत में दार्शनिक विचार और वैज्ञानिक तरीकों का विकास,
उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास।
शुक्रवार, 20 जून 2014
ancient Vimana (ऐतिहासिक विमान )
पक्षियों को आसमान में स्वछंद उड़ते देख सदियों से मनुष्य के मन में भी आसमान छूने की तमन्ना रही है। 1903 में राइट बन्धुओं ने किटी हॉक बनाकर इस सपने को सच कर दिखाया पर सवाल यह है कि क्या इससे पहले भी मनुष्य के आसमान में उड़ने की कोई कोशिश सफल हुई है?
पहले परवाज : 1780 में दो फ्रेंच नागरिकों ने पेरिस में हवा से हलके गुब्बारे में हवा में कुछ दूर तक उड़ान भरी थी, पर अब कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कई सभ्यताओं ने इससे कहीं पहले उड़ने की तकनीक विकसित कर ली थी। वर्षों की खोज के बाद मिले पुरातात्विक सबूत भी इस ओर इशारा करते हैं।
प्राचीन युग में भी बेबीलोन, मिस्र तथा चीनी सभ्यता में उड़नखटोलों या उड़ने वाले यांत्रिक उपकरणों की कहानियाँ प्रचलित हैं। इन सभ्यताओं के पौराणिक ग्रंथों में पौराणिक नायकों तथा देवताओं के आकाश में उड़ने के कई किस्से मिलते हैं।
भारतीय पौराणिक प्रमाण : भारतीय हिंदू पौराणिक और वैदिक साहित्य में ऐसे कई उल्लेख मिलते हैं जिनमें ऋषि-मुनि तथा देवपुरुष सशरीर अथवा किसी यांत्रिक उपकरण के माध्यम से उड़कर अपनी यात्रा पूरी करते थे।
स्कंद पुराण के खंड तीन अध्याय 23 में उल्लेख मिलता है कि ऋषि कर्दम ने अपनी पत्नी के लिए एक विमान की रचना की थी जिसके द्वारा कहीं भी आया जाया सकता था। उक्त पुराण में विमान की रचना और विमान की सुविधा का वर्णन भी मिलता है।
विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती ने 'इन्द्रविजय' नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त के प्रथम मंत्र का अर्थ लिखा है जिसमें कहा गया है कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था।
रामायण में भी पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है जिसमें बैठकर रावण सीताजी को हर ले गया था। हनुमान भी सीता की खोज में समुद्र पार लंका में उड़ कर ही पहुँचे थे। राम-रावण युद्ध के बाद श्रीराम ने सीता, लक्ष्मण तथा अन्य लोगों के साथ सुदूर दक्षिण में स्थित लंका से कई हजार किमी दूर उत्तर भारत में अयोध्या तक की दूरी हवाई मार्ग से पुष्पक विमान द्वारा ही तय की थी। पुष्पक विमान रावण ने अपने भाई कुबेर से बलपूर्वक हासिल किया था। रामायण में मेघनाद द्वारा उड़ने वाले रथ का प्रयोग करने का भी उल्लेख मिलता है।
भरद्वाज का वैमानिक शास्त्र : सबसे महत्वपूर्ण है चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में महर्षि भरद्वाज द्वारा लिखित ‘वैमानिक शास्त्र’ जिसमें एक उड़ने वाले यंत्र ‘विमान’ के कई प्रकारों का वर्णन किया गया था तथा हवाई युद्ध के कई नियम व प्रकार बताए गए।
वैमानिक शास्त्र में भरद्वाज मुनि ने विमान की परिभाषा, विमान का चालक जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया, आकाश मार्ग, वैमानिक के कपड़े, विमान के पुर्जे, ऊर्जा, यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का जैसा वर्णन किया गया है वह आधुनिक युग में विमान निर्माण प्रकिया से काफी मिलता है।
भरद्वाज मुनि ने उनसे पूर्व के विमानशास्त्री आचार्य और उनके ग्रंथों के बारे में भी लिखा है जो निम्नानुसार हैं- 1.नारायण द्वारा रचित विमान चन्द्रिका, 2.शौनक द्वारा रचित व्योमयान तंत्र, 3.गर्ग द्वारा रचित यन्त्रकल्प 4. वायस्पति द्वारा रचित यान बिन्दु, 5.चाक्रायणी द्वारा रचित खेटयान प्रदीपिका और 6. धुण्डीनाथ द्वारा रचित व्योमयानार्क प्रकाश।
वैमानिक शास्त्र में उल्लेखित प्रमुख पौराणिक विमान :
*‘गोधा’ ऐसा विमान था जो अदृश्य हो सकता था। इसके जरिए दुश्मन को पता चले बिना ही उसके क्षेत्र में जाया जा सकता था।
*‘परोक्ष’ दुश्मन के विमान को पंगु कर सकता था। इसकी कल्पना एक मुख्य युद्धक विमान के रूप में की जा सकती है। इसमें ‘प्रलय’ नामक एक शस्त्र भी था जो एक प्रकार की विद्युत ऊर्जा का शस्त्र था, जिससे विमान चालक भयंकर तबाही मचा सकता था।
*‘जलद रूप’ एक ऐसा विमान था जो देखने में बादल की भाँति दिखता था। यह विमान छ्द्मावरण में माहिर होता था।
अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य : 1898 में मिस्र के सक्कारा में एक मकबरे से 6 इंच लम्बा लकड़ी का बना ग्लाइडर जैसा दिखने वाला एक मॉडल मिला जो संभवत: 200 ई.पू. में बना था। कई सालों बाद मिस्र के एक वैमानिक विशेषज्ञ डॉ. खलीली मसीहा ने इसका अध्ययन कर बताया कि इसकी बनावट पूरी तरह आजकल के विमानों की तरह है। यहाँ तक कि इसकी टेल भी उतने ही कोण पर बनी है जिस पर वर्तमान ग्लाइडर बहुत कम ऊर्जा में भी उड़ सकता है।
हालाँकि अभी तक मिस्र के किसी भी मकबरे या पिरामिड से किसी विमान के कोई अवशेष या ढाँचा नहीं मिला है, पर एबीडोस के मंदिर पर उत्कीर्ण चित्रों में आजकल के विमानों से मिलती-जुलती आकृतियाँ उकेरी हुई मिली हैं। इसके खोजकर्ता डॉ. रूथ होवर का कहना है कि ‘पूरे मंदिर में ऐसी कई आकृतियाँ देखने को मिलती हैं जिसमें विमानों तथा हवा में उड़ने वाले उपकरणों को प्रदर्शित किया गया है। इनमें से कुछ तो आधुनिक हेलिकॉप्टर तथा जेट से मिलते-जुलते हैं’। इसके अलावा मिस्र की कई लोककथाओं तथा अरब देश की मशहूर कहानी अलिफ-लैला (अरेबियन नाइट्स) में भी उड़ने वाले कालीन का जिक्र मिलता है।
इसी तरह सदियों तक पेरू के धुंधभरे पहाड़ों में छिपी इंका सभ्यता की नाज़्का रेखाएँ तथा आकृतियाँ आज भी अंतरिक्ष से देखी जा सकती हैं। लेटिन अमेरिकी भूमि के समतल और रेतीले पठार पर बनी मीलों लंबी यह रेखाएँ ज्यामिति का एक अनुपम उदाहरण हैं। यहाँ बनी जीव-जंतुओं की 18 विशाल आकृतियाँ भी इतनी कुशलता से बनाई गई हैं कि लगता है मानो किसी विशाल से ब्रश के जरिये अंतरिक्ष से उकेरी गई हों।
आज भी इंका सभ्यता के खंडहरों और पिरामिडों (मिस्र के बाद पिरामिड यहाँ भी मिले हैं) के भित्तिचित्रों में मनुष्यों के पंख दर्शाए गए हैं तथा उड़नतश्तरी और अंतरिक्ष यात्रियों सरीखी पोशाक में लोगों के चित्र बने हैं। इसके अलावा मध्य अमेरिका से मिले पुरातात्विक अवशेषों में धातु की बनी आकृतियाँ बिलकुल आधुनिक विमानों से मिलती हैं। माचू-पिच्चू की धुन्ध भरी पहाड़ियों में रहने वाले कुछ समुदाय वहाँ पाए जाने वाले विशालकाय पक्षी कांडोर को पूजते हैं और इस क्षेत्र में मिले प्राचीन भित्ति चित्रों में लोगों को इसकी पीठ पर बैठ कर उड़ते हुए भी दिखाया गया है।
पहले परवाज : 1780 में दो फ्रेंच नागरिकों ने पेरिस में हवा से हलके गुब्बारे में हवा में कुछ दूर तक उड़ान भरी थी, पर अब कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कई सभ्यताओं ने इससे कहीं पहले उड़ने की तकनीक विकसित कर ली थी। वर्षों की खोज के बाद मिले पुरातात्विक सबूत भी इस ओर इशारा करते हैं।
प्राचीन युग में भी बेबीलोन, मिस्र तथा चीनी सभ्यता में उड़नखटोलों या उड़ने वाले यांत्रिक उपकरणों की कहानियाँ प्रचलित हैं। इन सभ्यताओं के पौराणिक ग्रंथों में पौराणिक नायकों तथा देवताओं के आकाश में उड़ने के कई किस्से मिलते हैं।
भारतीय पौराणिक प्रमाण : भारतीय हिंदू पौराणिक और वैदिक साहित्य में ऐसे कई उल्लेख मिलते हैं जिनमें ऋषि-मुनि तथा देवपुरुष सशरीर अथवा किसी यांत्रिक उपकरण के माध्यम से उड़कर अपनी यात्रा पूरी करते थे।
स्कंद पुराण के खंड तीन अध्याय 23 में उल्लेख मिलता है कि ऋषि कर्दम ने अपनी पत्नी के लिए एक विमान की रचना की थी जिसके द्वारा कहीं भी आया जाया सकता था। उक्त पुराण में विमान की रचना और विमान की सुविधा का वर्णन भी मिलता है।
विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती ने 'इन्द्रविजय' नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त के प्रथम मंत्र का अर्थ लिखा है जिसमें कहा गया है कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था।
रामायण में भी पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है जिसमें बैठकर रावण सीताजी को हर ले गया था। हनुमान भी सीता की खोज में समुद्र पार लंका में उड़ कर ही पहुँचे थे। राम-रावण युद्ध के बाद श्रीराम ने सीता, लक्ष्मण तथा अन्य लोगों के साथ सुदूर दक्षिण में स्थित लंका से कई हजार किमी दूर उत्तर भारत में अयोध्या तक की दूरी हवाई मार्ग से पुष्पक विमान द्वारा ही तय की थी। पुष्पक विमान रावण ने अपने भाई कुबेर से बलपूर्वक हासिल किया था। रामायण में मेघनाद द्वारा उड़ने वाले रथ का प्रयोग करने का भी उल्लेख मिलता है।
भरद्वाज का वैमानिक शास्त्र : सबसे महत्वपूर्ण है चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में महर्षि भरद्वाज द्वारा लिखित ‘वैमानिक शास्त्र’ जिसमें एक उड़ने वाले यंत्र ‘विमान’ के कई प्रकारों का वर्णन किया गया था तथा हवाई युद्ध के कई नियम व प्रकार बताए गए।
वैमानिक शास्त्र में भरद्वाज मुनि ने विमान की परिभाषा, विमान का चालक जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया, आकाश मार्ग, वैमानिक के कपड़े, विमान के पुर्जे, ऊर्जा, यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का जैसा वर्णन किया गया है वह आधुनिक युग में विमान निर्माण प्रकिया से काफी मिलता है।
भरद्वाज मुनि ने उनसे पूर्व के विमानशास्त्री आचार्य और उनके ग्रंथों के बारे में भी लिखा है जो निम्नानुसार हैं- 1.नारायण द्वारा रचित विमान चन्द्रिका, 2.शौनक द्वारा रचित व्योमयान तंत्र, 3.गर्ग द्वारा रचित यन्त्रकल्प 4. वायस्पति द्वारा रचित यान बिन्दु, 5.चाक्रायणी द्वारा रचित खेटयान प्रदीपिका और 6. धुण्डीनाथ द्वारा रचित व्योमयानार्क प्रकाश।
वैमानिक शास्त्र में उल्लेखित प्रमुख पौराणिक विमान :
*‘गोधा’ ऐसा विमान था जो अदृश्य हो सकता था। इसके जरिए दुश्मन को पता चले बिना ही उसके क्षेत्र में जाया जा सकता था।
*‘परोक्ष’ दुश्मन के विमान को पंगु कर सकता था। इसकी कल्पना एक मुख्य युद्धक विमान के रूप में की जा सकती है। इसमें ‘प्रलय’ नामक एक शस्त्र भी था जो एक प्रकार की विद्युत ऊर्जा का शस्त्र था, जिससे विमान चालक भयंकर तबाही मचा सकता था।
*‘जलद रूप’ एक ऐसा विमान था जो देखने में बादल की भाँति दिखता था। यह विमान छ्द्मावरण में माहिर होता था।
अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य : 1898 में मिस्र के सक्कारा में एक मकबरे से 6 इंच लम्बा लकड़ी का बना ग्लाइडर जैसा दिखने वाला एक मॉडल मिला जो संभवत: 200 ई.पू. में बना था। कई सालों बाद मिस्र के एक वैमानिक विशेषज्ञ डॉ. खलीली मसीहा ने इसका अध्ययन कर बताया कि इसकी बनावट पूरी तरह आजकल के विमानों की तरह है। यहाँ तक कि इसकी टेल भी उतने ही कोण पर बनी है जिस पर वर्तमान ग्लाइडर बहुत कम ऊर्जा में भी उड़ सकता है।
हालाँकि अभी तक मिस्र के किसी भी मकबरे या पिरामिड से किसी विमान के कोई अवशेष या ढाँचा नहीं मिला है, पर एबीडोस के मंदिर पर उत्कीर्ण चित्रों में आजकल के विमानों से मिलती-जुलती आकृतियाँ उकेरी हुई मिली हैं। इसके खोजकर्ता डॉ. रूथ होवर का कहना है कि ‘पूरे मंदिर में ऐसी कई आकृतियाँ देखने को मिलती हैं जिसमें विमानों तथा हवा में उड़ने वाले उपकरणों को प्रदर्शित किया गया है। इनमें से कुछ तो आधुनिक हेलिकॉप्टर तथा जेट से मिलते-जुलते हैं’। इसके अलावा मिस्र की कई लोककथाओं तथा अरब देश की मशहूर कहानी अलिफ-लैला (अरेबियन नाइट्स) में भी उड़ने वाले कालीन का जिक्र मिलता है।
इसी तरह सदियों तक पेरू के धुंधभरे पहाड़ों में छिपी इंका सभ्यता की नाज़्का रेखाएँ तथा आकृतियाँ आज भी अंतरिक्ष से देखी जा सकती हैं। लेटिन अमेरिकी भूमि के समतल और रेतीले पठार पर बनी मीलों लंबी यह रेखाएँ ज्यामिति का एक अनुपम उदाहरण हैं। यहाँ बनी जीव-जंतुओं की 18 विशाल आकृतियाँ भी इतनी कुशलता से बनाई गई हैं कि लगता है मानो किसी विशाल से ब्रश के जरिये अंतरिक्ष से उकेरी गई हों।
आज भी इंका सभ्यता के खंडहरों और पिरामिडों (मिस्र के बाद पिरामिड यहाँ भी मिले हैं) के भित्तिचित्रों में मनुष्यों के पंख दर्शाए गए हैं तथा उड़नतश्तरी और अंतरिक्ष यात्रियों सरीखी पोशाक में लोगों के चित्र बने हैं। इसके अलावा मध्य अमेरिका से मिले पुरातात्विक अवशेषों में धातु की बनी आकृतियाँ बिलकुल आधुनिक विमानों से मिलती हैं। माचू-पिच्चू की धुन्ध भरी पहाड़ियों में रहने वाले कुछ समुदाय वहाँ पाए जाने वाले विशालकाय पक्षी कांडोर को पूजते हैं और इस क्षेत्र में मिले प्राचीन भित्ति चित्रों में लोगों को इसकी पीठ पर बैठ कर उड़ते हुए भी दिखाया गया है।
माथे पर तिलक का रहस्य (Mystery of Tilak on forehead)
शायद भारत के सिवा और कहीं भी मस्तक पर तिलक लगाने की प्रथा प्रचलित नहीं है। यह रिवाज अत्यंत प्राचीन है। माना जाता है कि मनुष्य के मस्तक के मध्य में विष्णु भगवान का निवास होता है, और तिलक ठीक इसी स्थान पर लगाया जाता है।
मनोविज्ञान की दृष्टि से भी तिलक लगाना उपयोगी माना गया है। माथा चेहरे का केंद्रीय भाग होता है, जहां सबकी नजर अटकती है। उसके मध्य में तिलक लगाकर, विशेषकर स्त्रियों में, देखने वाले की दृष्टि को बांधे रखने का प्रयत्न किया जाता है।
स्त्रियां लाल कुंकुम का तिलक लगाती हैं। यह भी बिना प्रयोजन नहीं है। लाल रंग ऊर्जा एवं स्फूर्ति का प्रतीक होता है। तिलक स्त्रियों के सौंदर्य में अभिवृद्धि करता है। तिलक लगाना देवी की आराधना से भी जुड़ा है। देवी की पूजा करने के बाद माथे पर तिलक लगाया जाता है। तिलक देवी के आशीर्वाद का प्रतीक माना जाता है।
तिलक का महत्व
हिन्दु परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शूभ माना जाता है इसे सात्विकता का प्रतीक माना
जाता है विजयश्री प्राप्त करने के उद्देश्य रोली, हल्दी, चन्दन या फिर कुम्कुम का तिलक या कार्य की महत्ता को ध्यान में रखकर, इसी प्रकार शुभकामनाओं के रुप में हमारे तीर्थस्थानों पर, विभिन्न पर्वो-त्यौहारों, विशेष अतिथि आगमन पर आवाजाही के उद्देश्य से भी लगाया जाता है ।
मस्तिष्क के भ्रु-मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है । शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं, तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है । इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा-उपासना व शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार-बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल-सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें । इस आसान तरीके से सर्वसाधारण की रुचि धार्मिकता की ओर, आत्मिकता की ओर, तृतीय नेत्र जानकर इसके उन्मीलन की दिशा में किया गयचा प्रयास जिससे आज्ञाचक्र को नियमित उत्तेजना मिलती रहती है ।
तन्त्र शास्त्र के अनुसार माथे को इष्ट इष्ट देव का प्रतीक समझा जाता है हमारे इष्ट देव की स्मृति हमें सदैव बनी रहे इस तरह की धारणा क ध्यान में रखकर, ताकि मन में उस केन्द्रबिन्दु की स्मृति हो सकें । शरीर व्यापी चेतना शनैः शनैः आज्ञाचक्र पर एकत्रित होती रहे । चुँकि चेतना सारे शरीर में फैली रहती है । अतः इसे तिलक या टीके के माधअयम से आज्ञाचक्र पर एकत्रित कर, तीसरे नेत्र को जागृत करा सकें ताकि हम परामानसिक जगत में प्रवेश कर सकें ।
तिलक का हमारे जीवन में कितना महत्व है शुभघटना से लेकर अन्य कई धार्मिक अनुष्ठानों, संस्कारों, युद्ध लडने जाने वाले को शुभकामनाँ के तौर पर तिलक लगाया जाता है वे प्रसंग जिन्हें हम हमारी स्मृति-पटल से हटाना नही चाहते इन शुशियों को मस्तिष्क में स्थआई तौर पर रखने, शुभ-प्रसंगों इत्यादि के लिए तिलक लगाया जाता है हमारे जीवन में तिलक का बडा महत्व है तत्वदर्शन व विज्ञान भी इसके प्रचलन को शिक्षा को बढाने व हमारे हमारे जीवन सरल व सार्थकता उतारने के जरुरत है ?।
तिलक हिंदू संस्कृति में एक पहचान चिन्ह का काम करता है। तिलक केवल धार्मिक मान्यता नहीं है बल्कि कई वैज्ञानिक कारण भी हैं इसके पीछे। तिलक केवल एक तरह से नहीं लगाया जाता। हिंदू धर्म में जितने संतों के मत हैं, जितने पंथ है, संप्रदाय हैं उन सबके अपने अलग-अलग तिलक है.
मनोविज्ञान की दृष्टि से भी तिलक लगाना उपयोगी माना गया है। माथा चेहरे का केंद्रीय भाग होता है, जहां सबकी नजर अटकती है। उसके मध्य में तिलक लगाकर, विशेषकर स्त्रियों में, देखने वाले की दृष्टि को बांधे रखने का प्रयत्न किया जाता है।
स्त्रियां लाल कुंकुम का तिलक लगाती हैं। यह भी बिना प्रयोजन नहीं है। लाल रंग ऊर्जा एवं स्फूर्ति का प्रतीक होता है। तिलक स्त्रियों के सौंदर्य में अभिवृद्धि करता है। तिलक लगाना देवी की आराधना से भी जुड़ा है। देवी की पूजा करने के बाद माथे पर तिलक लगाया जाता है। तिलक देवी के आशीर्वाद का प्रतीक माना जाता है।
तिलक का महत्व
हिन्दु परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शूभ माना जाता है इसे सात्विकता का प्रतीक माना
जाता है विजयश्री प्राप्त करने के उद्देश्य रोली, हल्दी, चन्दन या फिर कुम्कुम का तिलक या कार्य की महत्ता को ध्यान में रखकर, इसी प्रकार शुभकामनाओं के रुप में हमारे तीर्थस्थानों पर, विभिन्न पर्वो-त्यौहारों, विशेष अतिथि आगमन पर आवाजाही के उद्देश्य से भी लगाया जाता है ।
मस्तिष्क के भ्रु-मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है । शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं, तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है । इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा-उपासना व शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार-बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल-सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें । इस आसान तरीके से सर्वसाधारण की रुचि धार्मिकता की ओर, आत्मिकता की ओर, तृतीय नेत्र जानकर इसके उन्मीलन की दिशा में किया गयचा प्रयास जिससे आज्ञाचक्र को नियमित उत्तेजना मिलती रहती है ।
तन्त्र शास्त्र के अनुसार माथे को इष्ट इष्ट देव का प्रतीक समझा जाता है हमारे इष्ट देव की स्मृति हमें सदैव बनी रहे इस तरह की धारणा क ध्यान में रखकर, ताकि मन में उस केन्द्रबिन्दु की स्मृति हो सकें । शरीर व्यापी चेतना शनैः शनैः आज्ञाचक्र पर एकत्रित होती रहे । चुँकि चेतना सारे शरीर में फैली रहती है । अतः इसे तिलक या टीके के माधअयम से आज्ञाचक्र पर एकत्रित कर, तीसरे नेत्र को जागृत करा सकें ताकि हम परामानसिक जगत में प्रवेश कर सकें ।
तिलक का हमारे जीवन में कितना महत्व है शुभघटना से लेकर अन्य कई धार्मिक अनुष्ठानों, संस्कारों, युद्ध लडने जाने वाले को शुभकामनाँ के तौर पर तिलक लगाया जाता है वे प्रसंग जिन्हें हम हमारी स्मृति-पटल से हटाना नही चाहते इन शुशियों को मस्तिष्क में स्थआई तौर पर रखने, शुभ-प्रसंगों इत्यादि के लिए तिलक लगाया जाता है हमारे जीवन में तिलक का बडा महत्व है तत्वदर्शन व विज्ञान भी इसके प्रचलन को शिक्षा को बढाने व हमारे हमारे जीवन सरल व सार्थकता उतारने के जरुरत है ?।
तिलक हिंदू संस्कृति में एक पहचान चिन्ह का काम करता है। तिलक केवल धार्मिक मान्यता नहीं है बल्कि कई वैज्ञानिक कारण भी हैं इसके पीछे। तिलक केवल एक तरह से नहीं लगाया जाता। हिंदू धर्म में जितने संतों के मत हैं, जितने पंथ है, संप्रदाय हैं उन सबके अपने अलग-अलग तिलक है.
कैलाश पर्वत का रहस्य (Secret of Kailash Mountain)
कैलाश पर्वत .......दुनिया का सबसे बड़ा रहस्यमयी पर्वत, अप्राकृतिक शक्तियों का भण्डारक
एक्सिस मुंडी को ब्रह्मांड का केंद्र, दुनिया की नाभि या आकाशीय ध्रुव और भौगोलिक ध्रुव के रूप में, यह आकाश और पृथ्वी के बीच संबंध का एक बिंदु है जहाँ चारों दिशाएं मिल जाती हैं। और यह नाम, असली और महान, दुनिया के सबसे पवित्र और सबसे रहस्यमय पहाड़ों में से एक कैलाश पर्वत से सम्बंधित हैं। एक्सिस मुंडी वह स्थान है अलौकिक शक्ति का प्रवाह होता है और आप उन शक्तियों के साथ संपर्क कर सकते हैं रूसिया के वैज्ञानिक ने वह स्थान कैलाश पर्वत बताया है।
भूगोल और पौराणिक रूप से कैलाश पर्वत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। इस पवित्र पर्वत की ऊंचाई 6714 मीटर है। और यह पास की हिमालय सीमा की चोटियों जैसे माउन्ट एवरेस्ट के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता पर इसकी भव्यता ऊंचाई में नहीं, लेकिन अपनी विशिष्ट आकार में निहित है। कैलाश पर्वत की संरचना कम्पास के चार दिक् बिन्दुओं के सामान है और एकान्त स्थान पर स्थित है जहाँ कोई भी बड़ा पर्वत नहीं है। कैलाश पर्वत पर चड़ना निषिद्ध है पर 11 सदी में एक तिब्बती बौद्ध योगी मिलारेपा ने इस पर चड़ाई की थी।
कैलाश पर्वत चार महान नदियों के स्त्रोतों से घिरा है सिंध, ब्रह्मपुत्र, सतलज और कर्णाली या घाघरा तथा दो सरोवर इसके आधार हैं पहला मानसरोवर जो दुनिया की शुद्ध पानी की उच्चतम झीलों में से एक है और जिसका आकर सूर्य के सामान है तथा राक्षस झील जो दुनिया की खारे पानी की उच्चतम झीलों में से एक है और जिसका आकार चन्द्र के सामान है। ये दोनों झीलें सौर और चंद्र बल को प्रदर्शित करते हैं जिसका सम्बन्ध सकारात्मक और नकारात्मक उर्जा से है। जब दक्षिण चेहरे से देखते हैं तो एक स्वस्तिक चिन्ह वास्तव में देखा जा सकता है.
कैलाश पर्वत और उसके आस पास के बातावरण पर अध्यन कर रहे रसिया के वैज्ञानिक Tsar Nikolai Romanov और उनकी टीम ने तिब्बत के मंदिरों में धर्मं गुरुओं से मुलाकात की उन्होंने बताया कैलाश पर्वत के चारों ओर एक अलौकिक शक्ति का प्रवाह होता है जिसमे तपस्वी आज भी आध्यात्मिक गुरुओं के साथ telepathic संपर्क करते है।
" In shape it (Mount Kailas) resembles a vast cathedral… the sides of the mountain are perpendicular and fall sheer for hundreds of feet, the strata horizontal, the layers of stone varying slightly in colour, and the dividing lines showing up clear and distinct...... which give to the entire mountain the appearance of having been built by giant hands, of huge blocks of reddish stone. "
(G.C. Rawling, The Great Plateau, London, 1905).
रूसिया के वैज्ञानिकों का दावा है की कैलाश पर्वत प्रकृति द्वारा निर्मित सबसे उच्चतम पिरामिड है। जिसको तीन साल पहले चाइना के वैज्ञानिकों द्वारा सरकारी चाइनीज़ प्रेस में नकार दिया था। आगे कहते हैं " कैलाश पर्वत दुनिया का सबसे बड़ा रहस्यमयी, पवित्र स्थान है जिसके आस पास अप्राकृतिक शक्तियों का भण्डार है। इस पवित्र पर्वत सभी धर्मों ने अलग अलग नाम दिए हैं। "
रूसिया वैज्ञानिकों की यह रिपोर्ट UNSpecial! Magzine में January-August 2004 को प्रकाशित की गयी थी।
एक्सिस मुंडी को ब्रह्मांड का केंद्र, दुनिया की नाभि या आकाशीय ध्रुव और भौगोलिक ध्रुव के रूप में, यह आकाश और पृथ्वी के बीच संबंध का एक बिंदु है जहाँ चारों दिशाएं मिल जाती हैं। और यह नाम, असली और महान, दुनिया के सबसे पवित्र और सबसे रहस्यमय पहाड़ों में से एक कैलाश पर्वत से सम्बंधित हैं। एक्सिस मुंडी वह स्थान है अलौकिक शक्ति का प्रवाह होता है और आप उन शक्तियों के साथ संपर्क कर सकते हैं रूसिया के वैज्ञानिक ने वह स्थान कैलाश पर्वत बताया है।
भूगोल और पौराणिक रूप से कैलाश पर्वत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। इस पवित्र पर्वत की ऊंचाई 6714 मीटर है। और यह पास की हिमालय सीमा की चोटियों जैसे माउन्ट एवरेस्ट के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता पर इसकी भव्यता ऊंचाई में नहीं, लेकिन अपनी विशिष्ट आकार में निहित है। कैलाश पर्वत की संरचना कम्पास के चार दिक् बिन्दुओं के सामान है और एकान्त स्थान पर स्थित है जहाँ कोई भी बड़ा पर्वत नहीं है। कैलाश पर्वत पर चड़ना निषिद्ध है पर 11 सदी में एक तिब्बती बौद्ध योगी मिलारेपा ने इस पर चड़ाई की थी।
कैलाश पर्वत चार महान नदियों के स्त्रोतों से घिरा है सिंध, ब्रह्मपुत्र, सतलज और कर्णाली या घाघरा तथा दो सरोवर इसके आधार हैं पहला मानसरोवर जो दुनिया की शुद्ध पानी की उच्चतम झीलों में से एक है और जिसका आकर सूर्य के सामान है तथा राक्षस झील जो दुनिया की खारे पानी की उच्चतम झीलों में से एक है और जिसका आकार चन्द्र के सामान है। ये दोनों झीलें सौर और चंद्र बल को प्रदर्शित करते हैं जिसका सम्बन्ध सकारात्मक और नकारात्मक उर्जा से है। जब दक्षिण चेहरे से देखते हैं तो एक स्वस्तिक चिन्ह वास्तव में देखा जा सकता है.
कैलाश पर्वत और उसके आस पास के बातावरण पर अध्यन कर रहे रसिया के वैज्ञानिक Tsar Nikolai Romanov और उनकी टीम ने तिब्बत के मंदिरों में धर्मं गुरुओं से मुलाकात की उन्होंने बताया कैलाश पर्वत के चारों ओर एक अलौकिक शक्ति का प्रवाह होता है जिसमे तपस्वी आज भी आध्यात्मिक गुरुओं के साथ telepathic संपर्क करते है।
" In shape it (Mount Kailas) resembles a vast cathedral… the sides of the mountain are perpendicular and fall sheer for hundreds of feet, the strata horizontal, the layers of stone varying slightly in colour, and the dividing lines showing up clear and distinct...... which give to the entire mountain the appearance of having been built by giant hands, of huge blocks of reddish stone. "
(G.C. Rawling, The Great Plateau, London, 1905).
रूसिया के वैज्ञानिकों का दावा है की कैलाश पर्वत प्रकृति द्वारा निर्मित सबसे उच्चतम पिरामिड है। जिसको तीन साल पहले चाइना के वैज्ञानिकों द्वारा सरकारी चाइनीज़ प्रेस में नकार दिया था। आगे कहते हैं " कैलाश पर्वत दुनिया का सबसे बड़ा रहस्यमयी, पवित्र स्थान है जिसके आस पास अप्राकृतिक शक्तियों का भण्डार है। इस पवित्र पर्वत सभी धर्मों ने अलग अलग नाम दिए हैं। "
रूसिया वैज्ञानिकों की यह रिपोर्ट UNSpecial! Magzine में January-August 2004 को प्रकाशित की गयी थी।
शिव के 19 अवतार (19 avatar of Lord Shiva)
शिव महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है,
1- पिप्पलाद अवतार :-
मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए? देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना। पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया। शाप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।
पिप्पलादेति तन्नाम चक्रे ब्रह्मा प्रसन्नधी:।
-शिवपुराण शतरुद्रसंहिता 24/61
अर्थात ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर सुवर्चा के पुत्र का नाम पिप्पलाद रखा।
2- नंदी अवतार :-
भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ।
3- वीरभद्र अवतार :-
यह अवतार तब हुआ था, जब दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रकट हुए।
शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है-
क्रुद्ध: सुदष्टïोष्ठïपुट: स धूर्जटिर्जटां तडिद्वह्लिï
सटोग्ररोचिषम्। उत्कृत्य रुद्र: सहसोत्थितो
हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि॥
ततोऽतिकायस्तनुवा स्पृशन्दिवं।
श्रीमद् भागवत -4/5/1
शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।
4- भैरव अवतार :-
शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। एक बार भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे। तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के पांचवें सिर को काट दिया। ब्रह्मा का पांचवां सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए। तब काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल गई। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।
5- अश्वत्थामा :-
महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के अंशावतार हैं। आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मे अवतीर्ण होंगे। समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं।
इस विषय में एक श्लोक प्रचलित है-
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
अर्थात अश्वत्थामा, राजा बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम व ऋषि मार्कण्डेय ये आठों अमर हैं।
शिवमहापुराण(शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं। वैसे, उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।
6- शरभावतार :-
भगवान शंकर का छठे अवतार हैं शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (आख्यानिकाओं में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था।इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था। लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसके अनुसार हिरण्यकश्पू का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था। हिरण्यकश्यपू के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता शिवजी के पास पहुंचे। तब भगवान शिव शरभ के रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की, लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई तो शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की।
7- गृहपति अवतार :-
भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं। शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की। पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए। यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की। एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया। मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मती गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं पितामह ब्रह्म ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था।
8- ऋषि दुर्वासा :-
भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है। धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए। उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोक में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा हुए, जो देवताओं द्वारा समुद्र में फेंके जाने पर उससे प्रकट हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्त उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।
शास्त्रों में इसका उल्लेख है-
अत्रे: पत्न्यनसूया त्रीञ्जज्ञे सुयशस: सुतान्।
दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मïसम्भवान्॥
-भागवत 4/1/15
अर्थ- अत्रि की पत्नी अनुसूइया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चंद्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए।
ये क्रमश: भगवान विष्णु, शंकर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे।
9- हनुमान :-
भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था। शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर वीर्यपात कर दिया। सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहीत कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए।
10- वृषभ अवतार :-
भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार लिया था। इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी। विष्णु जी ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए, जिन्होंने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया।
11- यतिनाथ अवतार :-
भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया है। उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी। भील दम्पत्ति को अपने प्राण गंवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे। एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा। इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया। प्रात:काल आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक को मार डाला है। इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं। जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया।
12- कृष्णदर्शन अवतार :-
भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है। इस प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म का प्रतीक है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। विद्या-अध्ययन को गुरुकुल गए। जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गया। पिता ने नभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके उनके धन को प्राप्त करे। तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष शंकर भगवान हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की।
13- अवधूत अवतार :-
भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उसका मार्ग रोक लिया। इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा। इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा त्यों ही उसका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की। इससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।
14- भिक्षुवर्य अवतार:-
भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी ही हैं। भगवान शंकर का भिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया। तब वह बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची। तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का निर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र है। यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया। शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उसे बालक का पालन पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना राज्य प्राप्त किया।
15- सुरेश्वर अवतार :-
भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जाप करने लगा। शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया।
16- किरात अवतार :-
किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी। महाभारत के अनुसार कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा। वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे, तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर( सुअर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा। अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया। उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर पर बाण चलाया। शिव की माया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न पाया और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है, यह कहने लगा। इस पर दोनों में विवाद हो गया। अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरवों पर विजय का आशीर्वाद दिया।
17- सुनटनर्तक अवतार :-
पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था। हाथ में डमरू लेकर जब शिवजी हिमाचल के घर पहुंचे तो नृत्य करने लगे। नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए। जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया। इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए। उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया।
18- ब्रह्मचारी अवतार :-
दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की। जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें श्मशानवासी व कापालिक भी कहा। यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध हुआ। पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया। यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं।
19- यक्ष अवतार :-
यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार देवताओं व असुरों द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कंठ में रोक लिया। इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान करने से सभी देवता अमर तो हो गए, साथ ही उन्हें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं। देवताओं के इसी अभिमान को तोड़ने के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया व देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए। तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी।
1- पिप्पलाद अवतार :-
मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए? देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना। पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया। शाप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।
पिप्पलादेति तन्नाम चक्रे ब्रह्मा प्रसन्नधी:।
-शिवपुराण शतरुद्रसंहिता 24/61
अर्थात ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर सुवर्चा के पुत्र का नाम पिप्पलाद रखा।
2- नंदी अवतार :-
भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ।
3- वीरभद्र अवतार :-
यह अवतार तब हुआ था, जब दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रकट हुए।
शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है-
क्रुद्ध: सुदष्टïोष्ठïपुट: स धूर्जटिर्जटां तडिद्वह्लिï
सटोग्ररोचिषम्। उत्कृत्य रुद्र: सहसोत्थितो
हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि॥
ततोऽतिकायस्तनुवा स्पृशन्दिवं।
श्रीमद् भागवत -4/5/1
शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।
4- भैरव अवतार :-
शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। एक बार भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे। तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के पांचवें सिर को काट दिया। ब्रह्मा का पांचवां सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए। तब काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल गई। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।
5- अश्वत्थामा :-
महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के अंशावतार हैं। आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मे अवतीर्ण होंगे। समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं।
इस विषय में एक श्लोक प्रचलित है-
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
अर्थात अश्वत्थामा, राजा बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम व ऋषि मार्कण्डेय ये आठों अमर हैं।
शिवमहापुराण(शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं। वैसे, उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।
6- शरभावतार :-
भगवान शंकर का छठे अवतार हैं शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (आख्यानिकाओं में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था।इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था। लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसके अनुसार हिरण्यकश्पू का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था। हिरण्यकश्यपू के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता शिवजी के पास पहुंचे। तब भगवान शिव शरभ के रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की, लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई तो शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की।
7- गृहपति अवतार :-
भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं। शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की। पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए। यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की। एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया। मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मती गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं पितामह ब्रह्म ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था।
8- ऋषि दुर्वासा :-
भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है। धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए। उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोक में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा हुए, जो देवताओं द्वारा समुद्र में फेंके जाने पर उससे प्रकट हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्त उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।
शास्त्रों में इसका उल्लेख है-
अत्रे: पत्न्यनसूया त्रीञ्जज्ञे सुयशस: सुतान्।
दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मïसम्भवान्॥
-भागवत 4/1/15
अर्थ- अत्रि की पत्नी अनुसूइया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चंद्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए।
ये क्रमश: भगवान विष्णु, शंकर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे।
9- हनुमान :-
भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था। शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर वीर्यपात कर दिया। सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहीत कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए।
10- वृषभ अवतार :-
भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार लिया था। इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी। विष्णु जी ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए, जिन्होंने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया।
11- यतिनाथ अवतार :-
भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया है। उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी। भील दम्पत्ति को अपने प्राण गंवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे। एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा। इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया। प्रात:काल आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक को मार डाला है। इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं। जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया।
12- कृष्णदर्शन अवतार :-
भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है। इस प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म का प्रतीक है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। विद्या-अध्ययन को गुरुकुल गए। जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गया। पिता ने नभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके उनके धन को प्राप्त करे। तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष शंकर भगवान हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की।
13- अवधूत अवतार :-
भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उसका मार्ग रोक लिया। इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा। इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा त्यों ही उसका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की। इससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।
14- भिक्षुवर्य अवतार:-
भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी ही हैं। भगवान शंकर का भिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया। तब वह बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची। तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का निर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र है। यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया। शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उसे बालक का पालन पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना राज्य प्राप्त किया।
15- सुरेश्वर अवतार :-
भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जाप करने लगा। शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया।
16- किरात अवतार :-
किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी। महाभारत के अनुसार कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा। वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे, तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर( सुअर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा। अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया। उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर पर बाण चलाया। शिव की माया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न पाया और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है, यह कहने लगा। इस पर दोनों में विवाद हो गया। अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरवों पर विजय का आशीर्वाद दिया।
17- सुनटनर्तक अवतार :-
पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था। हाथ में डमरू लेकर जब शिवजी हिमाचल के घर पहुंचे तो नृत्य करने लगे। नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए। जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया। इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए। उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया।
18- ब्रह्मचारी अवतार :-
दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की। जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें श्मशानवासी व कापालिक भी कहा। यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध हुआ। पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया। यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं।
19- यक्ष अवतार :-
यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार देवताओं व असुरों द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कंठ में रोक लिया। इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान करने से सभी देवता अमर तो हो गए, साथ ही उन्हें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं। देवताओं के इसी अभिमान को तोड़ने के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया व देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए। तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी।
सरस्वती नदी का रहस्य (Secret of Saraswati River)
सरस्वती नदी पौराणिक हिन्दु ग्रंथों तथा ऋग्वेद में वर्णित मुख्य नदियों में से एक है। ऋग्वेद के नदी सूक्त के एक श्लोक (१०.७५) में सरस्वती नदी को यमुना के पूर्व और सतलुज के पश्चिम में बहती हुए बताया गया है। उत्तर वैदिक ग्रंथों जैसे ताण्डय और जैमिनिय ब्राह्मण में सरस्वती नदी को मरुस्थल में सुखा हुआ बताया गया है, महाभारत भी सरस्वती नदी के मरुस्थल में विनाशन नामक जगह में अदृश्य होने का वर्णन करता है। महाभारत में सरस्वती नदी को प्लक्षवती नदी, वेद स्मृति, वेदवती आदि नामों से भी बताया गया है.
ऋग्वेद तथा अन्य पौराणिक वैदिक ग्रंथों में दिये सरस्वती नदी के सन्दर्भों के आधार पर कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि हरियाणा से राजस्थान होकर बहने वाली मौजुदा सुखि हुई घग्गर-हकरा नदी प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी की एक मुख्य सहायक नदी थी, जो ५००० - ३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी। उस समय सतलुज तथा यमुना की कुछ धाराए सरस्वती नदी में आकर मिलती थी। इसके अतिरिक्त दो अन्य लुप्त हुई नदियाँ दृष्टावदी और हिरण्यवती भी सरस्वती की सहायक नदियाँ थी,लगभग १९०० ईसा पूर्व तक भूगर्भी बदलाव की वजह से यमुना, सतलुज ने अपना रास्ता बदल दिया तथा दृष्टावदी नदी के भी २६०० ईसा पूर्व सूख जाने के कारण सरस्वती नदी लुप्त हो गयी। ऋग्वेद में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गयी है। वैदिक सभ्यता में सरस्वती ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी। इसरो द्वारा किये गये शोध से पता चला है कि आज भी यह नदी हरियाणा, पंजाब और राजस्थान से होती हुई भूमि के नीचे से होकर बहती है।
सरस्वती एक विशाल नदी थी। पहाड़ों को तोड़ती हुई निकलती थी और मैदानों से होती हुई समुद्र में जाकर विलीन हो जाती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में बार-बार आता है। कई मंडलों में इसका वर्णन है। ऋग्वेद वैदिक काल में इसमें हमेशा जल रहता था। सरस्वती आज की गंगा की तरह उस समय की विशाल नदियों में से एक थी। उत्तर वैदिक काल और महाभारत काल में यह नदी बहुत सूख चुकी थी। तब सरस्वती नदी में पानी बहुत कम था। लेकिन बरसात के मौसम में इसमें पानी आ जाता था। भूगर्भी बदलाव की वजह से सरस्वती नदी का पानी गंगा मे चला गया, कई विद्वान मानते है कि इसी वजह से गंगा के पानी की महिमा हुई, भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया। इसलिए यमुना में सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम माना गया जबकि यथार्थ में वहां तीन नदियों का संगम नहीं है। वहाँ केवल दो नदियां हैं। सरस्वती कभी भी इलाहाबाद तक नहीं पहुंची।
ऋग्वेद मे सन्दर्भ: सरस्वती नदी का ऋग्वेद की चौथे पुस्तक छोड़कर सभी पुस्तकों में कई बार उल्लेख किया गया है। केवल यही ऐसी नदी है जिसके लिए ऋग्वेद की छन्द संख्या ६.६१,७.९५ और ७.९६ में पूरी तरह से समर्पित भजन दिये गये है। वैदिक काल में सरस्वती की बड़ी महिमा थी और इसे परम पवित्र नदी माना जाता था, कयोंकि इसके तट के पास रहकर तथा इसी नदी के पानी का सेवन करते हुए ऋषियों ने वेदों को रचा और वैदिक ज्ञान का विस्तार किया। इसी कारण सरस्वती को विद्या और ज्ञान की देवी के रुप में भी पूजा जाने लगा। ऋग्वेद के नदी सूक्त में सरस्वती का इस प्रकार उल्लेख है कि 'इमं में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या असिक्न्या मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया' सरस्वती ऋग्वेद में केवल 'नदी देवी' के रूप में वर्णित है (इसकी वंदना तीन सम्पूर्ण तथा अनेक प्रकीर्ण मन्त्रों में की गई है), किंतु ब्राह्मण ग्रथों में इसे वाणी की देवी या वाच् के रूप में देखा गया, क्योंकि तब तक यह लुप्त हो चुकी थी परन्तु इसकी महिमा लुप्त नहीं हुई और उत्तर वैदिक काल में सरस्वती को मुख्यत:, वाणी के अतिरिक्त बुद्धि या विद्या की अधिष्ठात्री देवी भी माना गया है और ब्रह्मा की पत्नी के रूप में इसकी वंदना के गीत गाये गए है। ऋग्वेद मे सरस्वती को नदीतमा की उपाधि दी गयी है। उसकी एक शाखा २.४१.१६ मे इसे "सर्वश्रेष्ठ माँ,सर्वश्रेष्ठ नदी,सर्वश्रेष्ठ देवी" कहकर सम्बोधित किया गया है। यही प्रशंसा ऋग्वेद के अन्य छंदों ६.६१,८.८१,७.९६ और १०.१७ मे भी की गयी है। ऋग्वेद के श्लोक ७.९.५२ तथा अन्य जैसे ८.२१.१८ मे सरस्वती नदी को "दूध और घी" से परिपूर्ण बताया गया है। ऋग्वेद के श्लोक ३.३३.१ मे इसे गाय की तरह पालन करने वाली बताया गया है. ऋग्वेद के श्लोक ७.३६.६ मे सरस्वती को सप्तसिंधु नदियों की जननी बताया गया है.
अन्य वैदिक ग्रंथो में सन्दर्भऋग्वेद के बाद के वैदिक साहित्यों में सरस्वती नदी के विलुप्त होने का उल्लेख आता हैं ,इसके अतिरिक्त सरस्वती नदी के उद्गम स्थल की प्लक्ष प्रस्रवन के रुप मे पहचान की गयी है जो कि यमुनोत्री के पास ही स्थित है। यजुर्वेदयजुर्वेद की वाजस्नेयी संहिता ३४.११ में कहा गया है कि पांच नदियाँ अपने पूरे प्रवाह के साथ सरस्वती नदी में प्रविष्ट होती हैं, यह पांच नदियाँ पंजाब की सतलुज, रावी, व्यास, चेनाव और दृष्टावती हो सकती हैं वी. एस वाकंकर के अनुसार पांचों नदियों के संगम के सुखे हुए अवशेष राजस्थान के बाड़मेर या जैसलमेर के निकट पंचभद्र तीर्थ पर देखे जा सकते है। रामायणवाल्मीकि रामायण में भरत के केकय देश से अयोध्या आने के प्रसंग में सरस्वती और गंगा को पार करने का वर्णन है- 'सरस्वतीं च गंगा च युग्मेन प्रतिपद्य च, उत्तरान् वीरमत्स्यानां भारूण्डं प्राविशद्वनम्' सरस्वती नदी के तटवर्ती सभी तीर्थों का वर्णन महाभारत में शल्यपर्व के 35 वें से 54 वें अध्याय तक सविस्तार दिया गया है। इन स्थानों की यात्रा बलराम ने की थी। जिस स्थान पर मरूभूमि में सरस्वती लुप्त हो गई थी उसे विनशन कहते थे।महाभारतमहाभारत में तो सरस्वती नदी का उल्लेख कई बार किया गया है। सबसे पहले तो यह बताया गया है कि कई राजाओं ने इसके तट के समीप कई यज्ञ किये थे। वर्तमान सूखी हुई सरस्वती नदी के समान्तर खुदाई में ५५०० - ४००० वर्ष पुराने शहर मिले है जिनमे कालीबंगा और लोथल भी है यहाँ कई यज्ञ कुण्डों के अवशेष भी मिले है जो महाभारत में कहे तथ्य को प्रमाणित करती है। महाभारत में यह भी वर्णन आता है कि निषादों और मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने इनके प्रदेशों मे जाना बंद कर दिया जो इसके सुखने की प्रथम अवस्था को दर्शाती है, साथ ही यह भी वर्णन मिलता है कि सरस्वती नदी मरुस्थल में विनाशन नामक स्थान पर लुप्त हो फिर पुन किसी स्थान पर प्रकट होती है। महाभारत मे आता है कि ऋषि वसिष्ठ सत्लुज में कुदकर आत्महत्या का प्रयास करते है जिससे नदी १०० धाराओं मे टूट जाती है यह तथ्य सतलुज नदी के अपने पुराने मार्ग को बदलने की घटना को प्रमाणित करता है क्योंकि प्राचिन वैदिक काल में सतलुज नदी सरस्वती में ही जाकर अपना प्रवाह छोड़ती थी। बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण,यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है। महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र तीर्थ सरस्वती नदी के दक्षिण और दृष्टावती नदी के उत्तर में स्थित है। पुराण में संदर्भसिद्धपुर (गुजरात) सरस्वती नदी के तट पर बसा हुआ है। पास ही बिंदुसर नामक सरोवर है जो महाभारत का विनशन हो सकता है। यह सरस्वती मुख्य सरस्वती ही की धारा जान पड़ती है। यह कच्छ में गिरती है किंतु मार्ग में कई स्थानों पर लुप्त हो जाती है।'सरस्वती' का अर्थ है सरोवरों वाली नदी जो इसके छोड़े हुए सरोवरों से सिद्ध होता है।श्रीमद् भागवत "श्रीमद् भागवत (5,19,18)" में यमुना तथा दृषद्वती के साथ सरस्वती का उल्लेख है। "मंदाकिनीयमुनासरस्वतीदृषद्वदी गोमतीसरयु" "मेघदूत पूर्वमेघ" में कालिदास ने सरस्वती का ब्रह्मावर्त के अंतर्गत वर्णन किया ह। "कृत्वा तासामभिगममपां सौम्य सारस्वतीनामन्त:शुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्ण:" सरस्वती का नाम कालांतर में इतना प्रसिद्ध हुआ कि भारत की अनेक नदियों को इसी के नाम पर सरस्वती कहा जाने लगा। पारसियों के धर्मग्रंथ अवेस्ता में भी सरस्वती का नाम हरहवती मिलता है।
उद्गम स्थल तथा विलुप्त होने के कारण: महाभारत में मिले वर्णन के अनुसार सरस्वती नदी हरियाणा में यमुनानगर से थोड़ा ऊपर और शिवालिक पहाड़ियों से थोड़ा सा नीचे आदि बद्री नामक स्थान से निकलती थी। आज भी लोग इस स्थान को तीर्थस्थल के रूप में मानते हैं और वहां जाते हैं। किन्तु आज आदि बद्री नामक स्थान से बहने वाली नदी बहुत दूर तक नहीं जाती एक पतली धारा की तरह जगह-जगह दिखाई देने वाली इस नदी को ही लोग सरस्वती कह देते हैं। वैदिक और महाभारत कालीन वर्णन के अनुसार इसी नदी के किनारे ब्रह्मावर्त था, कुरुक्षेत्र था, लेकिन आज वहां जलाशय हैं। जब नदी सूखती है तो जहां-जहां पानी गहरा होता है, वहां-वहां तालाब या झीलें रह जाती हैं और ये तालाब और झीलें अर्ध्दचन्द्राकार शक्ल में पायी जाती हैं। आज भी कुरुक्षेत्र में ब्रह्मसरोवर या पेहवा में इस प्रकार के अर्ध्दचन्द्राकार सरोवर देखने को मिलते हैं, लेकिन ये भी सूख गए हैं। लेकिन ये सरोवर प्रमाण हैं कि उस स्थान पर कभी कोई विशाल नदी बहती थी और उसके सूखने के बाद वहां विशाल झीलें बन गयीं। भारतीय पुरातत्व परिषद् के अनुसार सरस्वती का उद्गम उत्तरांचल में रूपण नाम के हिमनद (ग्लेशियर) से होता था। रूपण ग्लेशियर को अब सरस्वती ग्लेशियर भी कहा जाने लगा है। नैतवार में आकर यह हिमनद जल में परिवर्तित हो जाता था, फिर जलधार के रूप में आदि बद्री तक सरस्वती बहकर आती थी और आगे चली जाती थी।
वैज्ञानिक और भूगर्भीय खोजों से पता चला है कि किसी समय इस क्षेत्र में भीषण भूकम्प आए, जिसके कारण जमीन के नीचे के पहाड़ ऊपर उठ गए और सरस्वती नदी का जल पीछे की ओर चला गया। वैदिक काल में एक और नदी दृषद्वती का वर्णन भी आता हैं। यह सरस्वती नदी की सहायक नदी थी। यह भी हरियाणा से होकर बहती थी। कालांतर में जब भीषण भूकम्प आए और हरियाणा तथा राजस्थान की धरती के नीचे पहाड़ ऊपर उठे, तो नदियों के बहाव की दिशा बदल गई। दृषद्वती नदी, जो सरस्वती नदी की सहायक नदी थी, उत्तर और पूर्व की ओर बहने लगी। इसी दृषद्वती को अब यमुना कहा जाता है, इसका इतिहास 4,000 वर्ष पूर्व माना जाता है। यमुना पहले चम्बल की सहायक नदी थी। बहुत बाद में यह इलाहाबाद में गंगा से जाकर मिली। यही वह काल था जब सरस्वती का जल भी यमुना में मिल गया। ऋग्वेद काल में सरस्वती समुद्र में गिरती थी। प्रयाग में सरस्वती कभी नहीं पहुंची। भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया। इसलिए यमुना में यमुना के साथ सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम माना गया जबकि यथार्थ में वहां तीन नदियों का संगम नहीं है। वहां केवल दो नदियां हैं। सरस्वती कभी भी इलाहाबाद तक नहीं पहुंची।
सरस्वती नदी और हड़प्पा सभ्यता: सरस्वती नदी के तट पर बसी सभ्यता को जिसे हड़प्पा सभ्यता या सिन्धु-सरस्वती सभ्यता कहा जाता है, यदि इसे वैदिक ऋचाओं से हटाकर देखा जाए तो फिर सरस्वती नदी मात्र एक नदी रह जाएगी, सभ्यता खत्म हो जाएगी। सभ्यता का इतिहास बताते हैं सरस्वती नदी तट पर बसी बस्तियों से मिले अवशेष त्था इन अवशेषों की कहानी केवल हड़प्पा सभ्यता से जुड़ती है। हड़प्पा सभ्यता की २६०० बस्तियों में से वर्तमान पाकिस्तान में सिन्धु तट पर मात्र 265 बस्तियां है, जबकि शेष अधिकांश बस्तियां सरस्वती नदी के तट पर मिलती हैं। अभी तक हड़प्पा सभ्यता को सिर्फ सिन्धु नदी की देन माना जाता रहा था, लेकिन अब नये शोधों से सिद्ध हो गया है कि सरस्वती का इस सभ्यता में बहुत बड़ा योगदान था।
ऋग्वेद तथा अन्य पौराणिक वैदिक ग्रंथों में दिये सरस्वती नदी के सन्दर्भों के आधार पर कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि हरियाणा से राजस्थान होकर बहने वाली मौजुदा सुखि हुई घग्गर-हकरा नदी प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी की एक मुख्य सहायक नदी थी, जो ५००० - ३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी। उस समय सतलुज तथा यमुना की कुछ धाराए सरस्वती नदी में आकर मिलती थी। इसके अतिरिक्त दो अन्य लुप्त हुई नदियाँ दृष्टावदी और हिरण्यवती भी सरस्वती की सहायक नदियाँ थी,लगभग १९०० ईसा पूर्व तक भूगर्भी बदलाव की वजह से यमुना, सतलुज ने अपना रास्ता बदल दिया तथा दृष्टावदी नदी के भी २६०० ईसा पूर्व सूख जाने के कारण सरस्वती नदी लुप्त हो गयी। ऋग्वेद में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गयी है। वैदिक सभ्यता में सरस्वती ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी। इसरो द्वारा किये गये शोध से पता चला है कि आज भी यह नदी हरियाणा, पंजाब और राजस्थान से होती हुई भूमि के नीचे से होकर बहती है।
सरस्वती एक विशाल नदी थी। पहाड़ों को तोड़ती हुई निकलती थी और मैदानों से होती हुई समुद्र में जाकर विलीन हो जाती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में बार-बार आता है। कई मंडलों में इसका वर्णन है। ऋग्वेद वैदिक काल में इसमें हमेशा जल रहता था। सरस्वती आज की गंगा की तरह उस समय की विशाल नदियों में से एक थी। उत्तर वैदिक काल और महाभारत काल में यह नदी बहुत सूख चुकी थी। तब सरस्वती नदी में पानी बहुत कम था। लेकिन बरसात के मौसम में इसमें पानी आ जाता था। भूगर्भी बदलाव की वजह से सरस्वती नदी का पानी गंगा मे चला गया, कई विद्वान मानते है कि इसी वजह से गंगा के पानी की महिमा हुई, भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया। इसलिए यमुना में सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम माना गया जबकि यथार्थ में वहां तीन नदियों का संगम नहीं है। वहाँ केवल दो नदियां हैं। सरस्वती कभी भी इलाहाबाद तक नहीं पहुंची।
ऋग्वेद मे सन्दर्भ: सरस्वती नदी का ऋग्वेद की चौथे पुस्तक छोड़कर सभी पुस्तकों में कई बार उल्लेख किया गया है। केवल यही ऐसी नदी है जिसके लिए ऋग्वेद की छन्द संख्या ६.६१,७.९५ और ७.९६ में पूरी तरह से समर्पित भजन दिये गये है। वैदिक काल में सरस्वती की बड़ी महिमा थी और इसे परम पवित्र नदी माना जाता था, कयोंकि इसके तट के पास रहकर तथा इसी नदी के पानी का सेवन करते हुए ऋषियों ने वेदों को रचा और वैदिक ज्ञान का विस्तार किया। इसी कारण सरस्वती को विद्या और ज्ञान की देवी के रुप में भी पूजा जाने लगा। ऋग्वेद के नदी सूक्त में सरस्वती का इस प्रकार उल्लेख है कि 'इमं में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या असिक्न्या मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया' सरस्वती ऋग्वेद में केवल 'नदी देवी' के रूप में वर्णित है (इसकी वंदना तीन सम्पूर्ण तथा अनेक प्रकीर्ण मन्त्रों में की गई है), किंतु ब्राह्मण ग्रथों में इसे वाणी की देवी या वाच् के रूप में देखा गया, क्योंकि तब तक यह लुप्त हो चुकी थी परन्तु इसकी महिमा लुप्त नहीं हुई और उत्तर वैदिक काल में सरस्वती को मुख्यत:, वाणी के अतिरिक्त बुद्धि या विद्या की अधिष्ठात्री देवी भी माना गया है और ब्रह्मा की पत्नी के रूप में इसकी वंदना के गीत गाये गए है। ऋग्वेद मे सरस्वती को नदीतमा की उपाधि दी गयी है। उसकी एक शाखा २.४१.१६ मे इसे "सर्वश्रेष्ठ माँ,सर्वश्रेष्ठ नदी,सर्वश्रेष्ठ देवी" कहकर सम्बोधित किया गया है। यही प्रशंसा ऋग्वेद के अन्य छंदों ६.६१,८.८१,७.९६ और १०.१७ मे भी की गयी है। ऋग्वेद के श्लोक ७.९.५२ तथा अन्य जैसे ८.२१.१८ मे सरस्वती नदी को "दूध और घी" से परिपूर्ण बताया गया है। ऋग्वेद के श्लोक ३.३३.१ मे इसे गाय की तरह पालन करने वाली बताया गया है. ऋग्वेद के श्लोक ७.३६.६ मे सरस्वती को सप्तसिंधु नदियों की जननी बताया गया है.
अन्य वैदिक ग्रंथो में सन्दर्भऋग्वेद के बाद के वैदिक साहित्यों में सरस्वती नदी के विलुप्त होने का उल्लेख आता हैं ,इसके अतिरिक्त सरस्वती नदी के उद्गम स्थल की प्लक्ष प्रस्रवन के रुप मे पहचान की गयी है जो कि यमुनोत्री के पास ही स्थित है। यजुर्वेदयजुर्वेद की वाजस्नेयी संहिता ३४.११ में कहा गया है कि पांच नदियाँ अपने पूरे प्रवाह के साथ सरस्वती नदी में प्रविष्ट होती हैं, यह पांच नदियाँ पंजाब की सतलुज, रावी, व्यास, चेनाव और दृष्टावती हो सकती हैं वी. एस वाकंकर के अनुसार पांचों नदियों के संगम के सुखे हुए अवशेष राजस्थान के बाड़मेर या जैसलमेर के निकट पंचभद्र तीर्थ पर देखे जा सकते है। रामायणवाल्मीकि रामायण में भरत के केकय देश से अयोध्या आने के प्रसंग में सरस्वती और गंगा को पार करने का वर्णन है- 'सरस्वतीं च गंगा च युग्मेन प्रतिपद्य च, उत्तरान् वीरमत्स्यानां भारूण्डं प्राविशद्वनम्' सरस्वती नदी के तटवर्ती सभी तीर्थों का वर्णन महाभारत में शल्यपर्व के 35 वें से 54 वें अध्याय तक सविस्तार दिया गया है। इन स्थानों की यात्रा बलराम ने की थी। जिस स्थान पर मरूभूमि में सरस्वती लुप्त हो गई थी उसे विनशन कहते थे।महाभारतमहाभारत में तो सरस्वती नदी का उल्लेख कई बार किया गया है। सबसे पहले तो यह बताया गया है कि कई राजाओं ने इसके तट के समीप कई यज्ञ किये थे। वर्तमान सूखी हुई सरस्वती नदी के समान्तर खुदाई में ५५०० - ४००० वर्ष पुराने शहर मिले है जिनमे कालीबंगा और लोथल भी है यहाँ कई यज्ञ कुण्डों के अवशेष भी मिले है जो महाभारत में कहे तथ्य को प्रमाणित करती है। महाभारत में यह भी वर्णन आता है कि निषादों और मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने इनके प्रदेशों मे जाना बंद कर दिया जो इसके सुखने की प्रथम अवस्था को दर्शाती है, साथ ही यह भी वर्णन मिलता है कि सरस्वती नदी मरुस्थल में विनाशन नामक स्थान पर लुप्त हो फिर पुन किसी स्थान पर प्रकट होती है। महाभारत मे आता है कि ऋषि वसिष्ठ सत्लुज में कुदकर आत्महत्या का प्रयास करते है जिससे नदी १०० धाराओं मे टूट जाती है यह तथ्य सतलुज नदी के अपने पुराने मार्ग को बदलने की घटना को प्रमाणित करता है क्योंकि प्राचिन वैदिक काल में सतलुज नदी सरस्वती में ही जाकर अपना प्रवाह छोड़ती थी। बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण,यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है। महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र तीर्थ सरस्वती नदी के दक्षिण और दृष्टावती नदी के उत्तर में स्थित है। पुराण में संदर्भसिद्धपुर (गुजरात) सरस्वती नदी के तट पर बसा हुआ है। पास ही बिंदुसर नामक सरोवर है जो महाभारत का विनशन हो सकता है। यह सरस्वती मुख्य सरस्वती ही की धारा जान पड़ती है। यह कच्छ में गिरती है किंतु मार्ग में कई स्थानों पर लुप्त हो जाती है।'सरस्वती' का अर्थ है सरोवरों वाली नदी जो इसके छोड़े हुए सरोवरों से सिद्ध होता है।श्रीमद् भागवत "श्रीमद् भागवत (5,19,18)" में यमुना तथा दृषद्वती के साथ सरस्वती का उल्लेख है। "मंदाकिनीयमुनासरस्वतीदृषद्वदी गोमतीसरयु" "मेघदूत पूर्वमेघ" में कालिदास ने सरस्वती का ब्रह्मावर्त के अंतर्गत वर्णन किया ह। "कृत्वा तासामभिगममपां सौम्य सारस्वतीनामन्त:शुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्ण:" सरस्वती का नाम कालांतर में इतना प्रसिद्ध हुआ कि भारत की अनेक नदियों को इसी के नाम पर सरस्वती कहा जाने लगा। पारसियों के धर्मग्रंथ अवेस्ता में भी सरस्वती का नाम हरहवती मिलता है।
उद्गम स्थल तथा विलुप्त होने के कारण: महाभारत में मिले वर्णन के अनुसार सरस्वती नदी हरियाणा में यमुनानगर से थोड़ा ऊपर और शिवालिक पहाड़ियों से थोड़ा सा नीचे आदि बद्री नामक स्थान से निकलती थी। आज भी लोग इस स्थान को तीर्थस्थल के रूप में मानते हैं और वहां जाते हैं। किन्तु आज आदि बद्री नामक स्थान से बहने वाली नदी बहुत दूर तक नहीं जाती एक पतली धारा की तरह जगह-जगह दिखाई देने वाली इस नदी को ही लोग सरस्वती कह देते हैं। वैदिक और महाभारत कालीन वर्णन के अनुसार इसी नदी के किनारे ब्रह्मावर्त था, कुरुक्षेत्र था, लेकिन आज वहां जलाशय हैं। जब नदी सूखती है तो जहां-जहां पानी गहरा होता है, वहां-वहां तालाब या झीलें रह जाती हैं और ये तालाब और झीलें अर्ध्दचन्द्राकार शक्ल में पायी जाती हैं। आज भी कुरुक्षेत्र में ब्रह्मसरोवर या पेहवा में इस प्रकार के अर्ध्दचन्द्राकार सरोवर देखने को मिलते हैं, लेकिन ये भी सूख गए हैं। लेकिन ये सरोवर प्रमाण हैं कि उस स्थान पर कभी कोई विशाल नदी बहती थी और उसके सूखने के बाद वहां विशाल झीलें बन गयीं। भारतीय पुरातत्व परिषद् के अनुसार सरस्वती का उद्गम उत्तरांचल में रूपण नाम के हिमनद (ग्लेशियर) से होता था। रूपण ग्लेशियर को अब सरस्वती ग्लेशियर भी कहा जाने लगा है। नैतवार में आकर यह हिमनद जल में परिवर्तित हो जाता था, फिर जलधार के रूप में आदि बद्री तक सरस्वती बहकर आती थी और आगे चली जाती थी।
वैज्ञानिक और भूगर्भीय खोजों से पता चला है कि किसी समय इस क्षेत्र में भीषण भूकम्प आए, जिसके कारण जमीन के नीचे के पहाड़ ऊपर उठ गए और सरस्वती नदी का जल पीछे की ओर चला गया। वैदिक काल में एक और नदी दृषद्वती का वर्णन भी आता हैं। यह सरस्वती नदी की सहायक नदी थी। यह भी हरियाणा से होकर बहती थी। कालांतर में जब भीषण भूकम्प आए और हरियाणा तथा राजस्थान की धरती के नीचे पहाड़ ऊपर उठे, तो नदियों के बहाव की दिशा बदल गई। दृषद्वती नदी, जो सरस्वती नदी की सहायक नदी थी, उत्तर और पूर्व की ओर बहने लगी। इसी दृषद्वती को अब यमुना कहा जाता है, इसका इतिहास 4,000 वर्ष पूर्व माना जाता है। यमुना पहले चम्बल की सहायक नदी थी। बहुत बाद में यह इलाहाबाद में गंगा से जाकर मिली। यही वह काल था जब सरस्वती का जल भी यमुना में मिल गया। ऋग्वेद काल में सरस्वती समुद्र में गिरती थी। प्रयाग में सरस्वती कभी नहीं पहुंची। भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया। इसलिए यमुना में यमुना के साथ सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम माना गया जबकि यथार्थ में वहां तीन नदियों का संगम नहीं है। वहां केवल दो नदियां हैं। सरस्वती कभी भी इलाहाबाद तक नहीं पहुंची।
सरस्वती नदी और हड़प्पा सभ्यता: सरस्वती नदी के तट पर बसी सभ्यता को जिसे हड़प्पा सभ्यता या सिन्धु-सरस्वती सभ्यता कहा जाता है, यदि इसे वैदिक ऋचाओं से हटाकर देखा जाए तो फिर सरस्वती नदी मात्र एक नदी रह जाएगी, सभ्यता खत्म हो जाएगी। सभ्यता का इतिहास बताते हैं सरस्वती नदी तट पर बसी बस्तियों से मिले अवशेष त्था इन अवशेषों की कहानी केवल हड़प्पा सभ्यता से जुड़ती है। हड़प्पा सभ्यता की २६०० बस्तियों में से वर्तमान पाकिस्तान में सिन्धु तट पर मात्र 265 बस्तियां है, जबकि शेष अधिकांश बस्तियां सरस्वती नदी के तट पर मिलती हैं। अभी तक हड़प्पा सभ्यता को सिर्फ सिन्धु नदी की देन माना जाता रहा था, लेकिन अब नये शोधों से सिद्ध हो गया है कि सरस्वती का इस सभ्यता में बहुत बड़ा योगदान था।
विश्व का पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला विश्वविद्यालय (World's first International University)
वर्तमान पाकिस्तान की राजधानी रावलपिण्डी से 18 मील उत्तर की ओर स्थित था। जिस नगर में यह विश्वविद्यालय था उसके बारे में कहा जाता है कि श्री राम के भाई भरत के पुत्र तक्ष ने उस नगर की स्थापना की थी। यह विश्व का प्रथम विश्विद्यालय था जिसकी स्थापना 700 वर्ष ईसा पूर्व में की गई थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय में पूरे विश्व के 10,500 से अधिक छात्र अध्ययन करते थे। यहां 60 से भी अधिक व िषयों को पढ़ाया जाता था। 326 ईस्वी पूर्व में विदेशी आक्रमणकारी सिकन्दर के आक्रमण के समय यह संसार का सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय ही नहीं था, अपितु उस समय के चिकित्सा शास्त्र का एकमात्र सर्वोपरि केन्द्र था। तक्षशिला विश्वविद्यालय का विकास विभिन्न रूपों में हुआ था। इसका कोई एक केन्द्रीय स्थान नहीं था, अपितु यह विस्तृत भू भाग में फैला हुआ था। विविध विद्याओं के विद्वान आचार्यो ने यहां अपने विद्यालय तथा आश्रम बना रखे थे। छात्र रुचिनुसार अध्ययन हेतु विभिन्न आचार्यों के पास जाते थे। महत्वपूर्ण पाठयक्रमों में यहां वेद-वेदान्त, अष्टादश विद्याएं, दर्शन, व्याकरण, अर्थशास्त्र, राजनीति, युद्धविद्या, शस्त्र-संचालन, ज्योतिष, आयुर्वेद, ललित कला, हस्त विद्या, अश्व-विद्या, मन्त्र-विद्या, विविद्य भाषाएं, शिल्प आदि की शिक्षा विद्यार्थी प्राप्त करते थे। प्राचीन भारतीय साहित्य के अनुसार पाणिनी, कौटिल्य, चन्द्रगुप्त, जीवक, कौशलराज, प्रसेनजित आदि महापुरुषों ने इसी विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। तक्षशिला विश्वविद्यालय में वेतनभोगी शिक्षक नहीं थे और न ही कोई निर्दिष्ट पाठयक्रम था। आज कल की तरह पाठयक्रम की अवधि भी निर्धारित नहीं थी और न कोई विशिष्ट प्रमाणपत्र या उपाधि दी जाती थी। शिष्य की योग्यता और रुचि देखकर आचार्य उनके लिए अध्ययन की अवधि स्वयं निश्चित करते थे। परंतु कहीं-कहीं कुछ पाठयक्रमों की समय सीमा निर्धारित थी। चिकित्सा के कुछ पाठयक्रम सात वर्ष के थे तथा पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद प्रत्येक छात्र को छ: माह का शोध कार्य करना पड़ता था। इस शोध कार्य में वह कोई औषधि की जड़ी-बूटी पता लगाता तब जाकर उसे डिग्री मिलती थी।
* यह विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय था जिसकी स्थापना 700 वर्ष ईसा पूर्व में की गई थी।
* तक्षशिला विश्वविद्यालय में पूरे विश्व के 10,500 से अधिक छात्र अध्ययन करते थे।
* यहां 60 से भी अधिक विषयों को पढ़ाया जाता था।
* 326 ईस्वी पूर्व में विदेशी आक्रमणकारी सिकन्दर के आक्रमण के समय यह संसार का सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय ही नहीं था, अपितु उस समय के'चिकित्सा शास्त्र'का एकमात्र सर्वोपरि केन्द्र था।
आयुर्वेद विज्ञान का सबसे बड़ा केन्द्र
500 ई. पू. जब संसार में चिकित्सा शास्त्र की परंपरा भी नहीं थी तब तक्षशिला'आयुर्वेद विज्ञान'का सबसे बड़ा केन्द्र था। जातक कथाओं एवं विदेशी पर्यटकों के लेख से पता चलता है कि यहां के स्नातक मस्तिष्क के भीतर तथा अंतड़ियों तक का ऑपरेशन बड़ी सुगमता से कर लेते थे। अनेक असाध्य रोगों के उपचार सरल एवं सुलभ जड़ी बूटियों से करते थे। इसके अतिरिक्त अनेक दुर्लभ जड़ी-बूटियों का भी उन्हें ज्ञान था। शिष्य आचार्य के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करते थे। एक आचार्य के पास अनेक विद्यार्थी रहते थे। इनकी संख्या प्राय: सौ से अधिक होती थी और अनेक बार 500 तक पहुंच जाती थी। अध्ययन में क्रियात्मक कार्य को बहुत महत्त्व दिया जाता था। छात्रों को देशाटन भी कराया जाता था।
शुल्क और परीक्षा
शिक्षा पूर्ण होने पर परीक्षा ली जाती थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय से स्नातक होना उससमय अत्यंत गौरवपूर्ण माना जाता था। यहां धनी तथा निर्धन दोनों तरह के छात्रों के अध्ययन की व्यवस्था थी। धनी छात्रा आचार्य को भोजन, निवास और अध्ययन का शुल्क देते थे तथा निर्धन छात्र अध्ययन करते हुए आश्रम के कार्य करते थे। शिक्षा पूरी होने पर वे शुल्क देने की प्रतिज्ञा करते थे। प्राचीन साहित्य से विदित होता है कि तक्षशिला विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले उच्च वर्ण के ही छात्र होते थे। सुप्रसिद्ध विद्वान, चिंतक, कूटनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री चाणक्य ने भी अपनी शिक्षा यहीं पूर्ण की थी। उसके बाद यहीं शिक्षण कार्य करने लगे। यहीं उन्होंने अपने अनेक ग्रंथों की रचना की। इस विश्वविद्यालय की स्थिति ऐसे स्थान पर थी, जहां पूर्व और पश्चिम से आने वाले मार्ग मिलते थे। चतुर्थ शताब्दी ई. पू. से ही इस मार्ग से भारतवर्ष पर विदेशी आक्रमण होने लगे। विदेशी आक्रांताओं ने इस विश्वविद्यालय को काफ़ी क्षति पहुंचाई। अंतत: छठवीं शताब्दी में यह आक्रमणकारियों द्वारा पूरी तरह नष्ट कर दिया।
पाठ्यक्रम
* उस समय विश्वविद्यालय कई विषयों के पाठ्यक्रम उपलब्ध करता था, जैसे - भाषाएं , व्याकरण, दर्शन शास्त्र , चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, कृषि , भूविज्ञान, ज्योतिष, खगोल शास्त्र, ज्ञान-विज्ञान, समाज-शास्त्र, धर्म , तंत्र शास्त्र, मनोविज्ञान तथा योगविद्या आदि।
* विभिन्न विषयों पर शोध का भी प्रावधान था।
* शिक्षा की अवधि 8 वर्ष तक की होती थी।
* विशेष अध्ययन के अतिरिक्त वेद , तीरंदाजी, घुड़सवारी, हाथी का संधान व एक दर्जन से अधिक कलाओं की शिक्षा दी जाती थी।
* तक्षशिला के स्नातकों का हर स्थान पर बड़ा आदर होता था।
* यहां छात्र 15-16 वर्ष की अवस्था में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने आते थे।
स्वाभाविक रूप से चाणक्य को उच्च शिक्षा की चाह तक्षशिला ले आई। यहां चाणक्य ने पढ़ाई में विशेष योग्यता प्राप्त की
विष्णु के दस अवतार कौन से है (what are Ten Avatars of God Vishnu)
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानमं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। (श्रीमद्भाग्वद् गीता 4/7-8)
हिन्दूओं का विशवास है कि सृष्टि में सभी प्राणी पूर्वनिश्चित धर्मानुसार अपने अपने कार्य करते रहते हैं और जब कभी धर्म की हानि की होती है तो सृष्टिकर्ता धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये धरती पर अवतार लेते हैं। मुख्यतः आज तक सृष्टि पालक भगवान विष्णु नौ बार धरती पर अवतरित हो चुके हैं और दसवीं बार अभी हों गे। सभी अवतारों की कथायें पुराणों में विस्तार पूर्वक संकलित हैं। उन का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः –
मत्स्य अवतार – एक बार राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी के तट पर तर्पण कर रहे थे तो एक छोटी मछली उन की अंजली में आकर विनती करने लगी कि वह उसे बचा लें। राजा सत्यव्रत ने एक पात्र में जल भर कर उस मछली को सुरक्षित कर दिया किन्तु शीघ्र ही वह मछली पात्र से भी बड़ी हो गयी। राजा ने मछली को क्रमशः तालाब, नदी और अंत में सागर के अन्दर रखा पर हर बार वह पहले से भी बड़े शरीर में परिवर्तित होती गयी। अंत में मछली रूपी विष्णु ने राजा सत्यव्रत को एक महाभयानक बाढ़ के आने से समस्त सृष्टि पर जीवन नष्ट हो जाने की चेतावनी दी। तदन्तर राजा सत्यव्रत ने एक बड़ी नाव बनवायी और उस में सभी धान्य, प्राणियों के मूल बीज भर दिये और सप्तऋषियों के साथ नाव में सवार हो गये। मछली ने नाव को खींच कर पर्वत शिखर के पास सुरक्षित पहँचा दिया। इस प्रकार मूल बीजों और सप्तऋषियों के ज्ञान से महाप्रलय के पश्चात सृष्टि पर पुनः जीवन का प्रत्यारोपन हो गया। इस कथा का विशलेशन हज़रत नोहा की आर्क के साथ किया जा सकता है जो बाईबल में संकलित है। यह कथा डी एन ऐ सुरक्षित रखने की वैज्ञानिक क्षमता की ओर संकेत भी करती है जिस की सहायता से सृष्टि के विनाश के बाद पुनः उत्पत्ति करी जा सके।
कुर्मा अवतार – महाप्रलय के कारण पृथ्वी की सम्पदा जलाशाय़ी हो गयी थी। अतः भगवान विष्णु ने कछुऐ का अवतार ले कर सागर मंथन के समय पृथ्वी की जलाशाय़ी सम्पदा को निकलवाया था। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि आईस ऐज के बाद सृष्टि का पुनरर्निमाण हुआ था। पौराणिक सागर मंथन की कथानुसार सुमेरु पर्वत को सागर मंथन के लिये इस्तेमाल किया गया था। माऊंट ऐवरेस्ट का ही भारतीय नाम सुमेरू पर्वत है तथा नेपाल में उसे सागर मत्था कहा जाता है। जलमग्न पृथ्वी से सर्व प्रथम सब से ऊँची चोटी ही बाहर प्रगट हुयी होगी। यह तो वैज्ञानिक तथ्य है कि सभी जीव जन्तु और पदार्थ सागर से ही निकले हैं। अतः उसी घटना के साथ इस कथा का विशलेशन करना चाहिये।
वराह अवतार – भगवान विष्णु ने दैत्य हिरणाक्ष का वध करने के लिये वराह रूप धारण किया था तथा उस के चुंगल से धरती को छुड़वाया था। पौराणिक चित्रों में वराह भगवान धरती को अपने दाँतों के ऊपर संतुलित कर के सागर से बाहर निकाल कर ला रहे होते हैं। वराह को पूर्णतया वराह (जंगली सूअर) के अतिरिक्त कई अन्य चित्रों में अर्ध-मानव तथा अर्ध-वराह के रूप में भी दर्शाया जाता है। वराह अवतार के मानव शरीर पर वराह का सिर और चार हाथ हैं जो कि भगवान विष्णु की तरह शंख, चक्र, गदा और पद्म लिये हुये दैत्य हिरणाक्ष से युद्ध कर रहे हैं। विचारनीय वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सभी प्राचीन चित्रों में धरती गोलाकार ही दर्शायी जाती है जो प्रमाण है कि आदि काल से ही हिन्दूओं को धरती के गोलाकार होने का पता था। इस अवतार की कथा का सम्बन्ध महाप्रलय के पश्चात सागर के जलस्तर से पृथ्वी का पुनः प्रगट होना भी है।
नर-सिहं अवतार – भगवान विष्णु ने नर-सिंह (मानव शरीर पर शेर का सिर) के रूप में अवतरित हो कर दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध किया था जिस के अहंकार और क्रूरता ने सृष्टि का समस्त विधान तहस नहस कर दिया था। नर-सिंह एक स्तम्भ से प्रगट हुये थे जिस पर हिरण्यकशिपु ने गदा से प्रहार कर के भगवान विष्णु की सर्व-व्यापिक्ता और शक्ति को चुनौती दी थी। यह अवतार इस धारणा का प्रतिपादन करता है कि ईश्वरीय शक्ति के लिये विश्व में कुछ भी करना असम्भव नहीं भले ही वैज्ञानिक तर्क से ऐसा असम्भव लगे।
वामन अवतार – वामन अवतार के रूप नें भगवान विष्णु मे दैत्यराज बलि से तीन पग पृथ्वी दान में मांगी थी। राजा बलि ने दैत्यगुरू शुक्राचार्य के विरोध के बावजूद जब वामन को तीन पग पृथ्वी देना स्वीकार कर लिया तो वामन ने अपना आकार बढ़ा लिया और दो पगों में आकाश और पाताल को माप लिया। जब तीसरा पग रखने के लिये कोई स्थान ही नहीं बचा तो प्रतिज्ञा पालक बलि ने अपना शीश तीसरा पग रखने के लिये समर्पित कर दिया। विष्णु ने तीसरे पग से बलि को सुतल-लोक में धंसा दिया परन्तु उस की दान वीरता से प्रसन्न हो कर राजा बलि को अमर-पद भी प्रदान कर दिया। आज भी बलि सुतुल-लोक के स्वामी हैं। दक्षिण भारत में इस कथा को पोंगल त्योहार के साथ जोडा जाता है।
परशुराम अवतार – परशुराम का विवरण रामायण तथा महाभारत दोनो महाकाव्यों में आता है। वह ऋषि जमदग्नि के पुत्र थे और उन्हों ने भगवान शिव की उपासना कर के एक दिव्य परशु (कुलहाड़ा) वरदान में प्राप्त किया था। एक बार राजा कृतवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु अपनी सैना का साथ जमदग्नि के आश्रम में आये तो ऋषि ने उन का आदर सत्कार किया। ऋषि ने सभी पदार्थ कामधेनु दिव्य गाय की कृपा से जुटाये थे। इस से आश्चर्य चकित हो कर कृतवीर्य ने अपने सैनिकों को ज़बरदस्ती ऋषि की गाय को ले जाने का आदेश दे दिया। अंततः परशुराम ने कृतवीर्य तथा उस की समस्त सैना का अपने परशु से संहार किया। तदन्तर कृतवीर्य के पुत्रों ने ऋषि जमदग्नि का वध कर दिया तो परशुराम ने कृतवीर्य और समस्त क्षत्रिय जाति का विनाश कर दिया और पूरी पृथ्वी उन से छीन कर ऋषि कश्यप को दान कर दी। सम्भवतः बाद में कश्यप ऋषि के नाम से ही उन के आश्रम के समीप का सागर कश्यप सागर (केस्पीयन सी) के नाम से आज तक जाना जाता है। पूरा कथानांक प्रचीन इतिहास अपने में छुपाये हुये है। परशुराम अवतार राजाओं के अत्याचार तथा निरंकुश्ता के विरुध शोषित वर्ग का प्रथम शक्ति पलट अन्दोलन था। परशुराम अवतार ने शासकों को अधिकारों के दुरुप्योग के विरुध चेताया और आज के संदर्भ में भी इसी प्रकार के अवतार की पुनः ज़रूरत है।
राम अवतार - परशुराम अवतार राजसत्ता के दुरुप्योग के विरुध शोषित वर्ग का आन्दोलन था तो भगवान विष्णु ने ऐक आदर्श राजा तथा आदर्श मानव की मर्यादा स्थापित करने के लिये राम अवतार लिया। राम का चरित्र हिन्दू संस्कृति में एक आदर्श मानव, भाई, पति, पुत्र के अतिरिक्त राजा के व्यवहार का भी कीर्तिमान है। अंग्रेजी साहित्य के लेखक टोमस मूर ने पन्द्रवीं शताब्दी में आदर्श राज्य के तौर पर एक यूटोपिया राज्य की केवल कल्पना ही करी थी किन्तु राम राज्य टोमस मूर के काल्पनिक राज्य से कहीं अधिक वास्तविक आदर्श राज्य स्थापित हो चुका था। राम का इतिहास समेटे रामायण विश्व साहित्य का प्रथम महाकाव्य है।
कृष्ण अवतार – कृष्ण अवतार का समय आज से लगभग 5100 वर्ष या ईसा से 3102 वर्ष पूर्व का माना जाता है। कृष्ण ने महाभारत युद्ध में एक निर्णायक भूमिका निभाय़ी और उन के दुआरा गीता का ज्ञान अर्जुन को दिया जो कि संसार का सब से सक्ष्म दार्शनिक वार्तालाप है। कृष्ण के इतिहास का वर्णन महाभारत के अतिरिक्त कई पुराणों तथा हिन्दू साहित्य की पुस्तकों में भी है। उन के बारे में कई सच्ची तथा काल्पनिक कथायें भी लिखी गयी हैं। कृष्ण दार्शनिक होने के साथ साथ एक राजनीतिज्ञ्, कुशल रथवान, योद्धा, तथा संगीतिज्ञ् भी थे। उन को 64 कलाओं का ज्ञाता कहा जाता है और सोलह कला सम्पूर्ण अवतार कहा जाता है। कृष्ण को आज के संदर्भ में पूर्णत्या दि कम्पलीट मैन कहा जा सकता है।
बुद्ध अवतार – विष्णु ने सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के रूप में जन-साधारण को पशु बलि के विरुध अहिंसा का संदेश देने के लिये अवतार लिया। भारतीय शिल्प कला में सब से अधिक मूर्तियां भगवान बुद्ध की ही हैं। आम तौर पर बौध मत के अनुयायी गौतम बुद्ध के अतिरिक्त बुद्ध के और भी बोधिसत्व अवतारों को मानते हैं।
कलकी अवतार –विष्णु पुराण में सैंकड़ों वर्ष पूर्व ही भविष्यवाणी की गयी है कि कलियुग के अन्त में कलकी महा-अवतार होगा जो इस युग के अन्धकारमय और निराशा जनक वातावरण का अन्त करे गा। कलकी शब्द सदैव तथा समय का पर्यायवाची है। कलकी अवतार की भविष्यवाणी के कई अन्य स्त्रोत्र भी हैं।
हिन्दू् धर्म में हर कोई अपने विचारों से अवतार-वाद की व्याख्या कर सकता है। कोई किसी को अवतार माने या ना माने इस से किसी को भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। सभी हिन्दू धर्म के मत की छत्र छाया तले समा जाते हैं। हिन्दू धर्माचार्यों ने अवतार वाद की कई व्याख्यायें प्रस्तुत की हैं। उन में समानतायें, विषमतायें तथा विरोधाभास भी है।
सृष्टि की जन्म प्रक्रिया - एक मत के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतार सृष्टि की जन्म प्रक्रिया को दर्शाते हैं। इस मतानुसार जल से सभी जीवों की उत्पति हुई अतः भगवान विष्णु सर्व प्रथम जल के अन्दर मत्स्य रूप में प्रगट हुये। फिर कुर्मा बने। इस के पश्चात वराह, जो कि जल तथा पृथ्वी दोनो का जीव है। नरसिंह, आधा पशु – आधा मानव, पशु योनि से मानव योनि में परिवर्तन का जीव है। वामन अवतार बौना शरीर है तो परशुराम एक बलिष्ठ ब्रह्मचारी का स्वरूप है जो राम अवतार से गृहस्थ जीवन में स्थानांतरित हो जाता है। कृष्ण अवतार एक वानप्रस्थ योगी, और बुद्ध परियावरण का रक्षक हैं। परियावरण के मानवी हनन की दशा सृष्टि को विनाश की ओर धकेल देगी। अतः विनाश निवारण के लिये कलकी अवतार की भविष्यवाणी पौराणिक साहित्य में पहले से ही करी गयी है।
मानव जीवन के विभन्न पड़ाव - एक अन्य मतानुसार दस अवतार मानव जीवन के विभन्न पड़ावों को दर्शाते हैं। मत्स्य अवतार शुक्राणु है, कुर्मा भ्रूण, वराह गर्भ स्थति में बच्चे का वातावरण, तथा नर-सिंह नवजात शिशु है। आरम्भ में मानव भी पशु जैसा ही होता है। वामन बचपन की अवस्था है, परशुराम ब्रह्मचारी, राम युवा गृहस्थी, कृष्ण वानप्रस्थ योगी तथा बुद्ध वृद्धावस्था का प्रतीक है। कलकी मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म की अवस्था है।
राजशक्ति के दैविक सिद्धान्त - कुछ विचारकों के मतानुसार राजशक्ति के दैविक सिद्धान्त को बल देने के लिये कुछ राजाओं ने अपने कृत्यों के आश्रचर्य चकित करने वाले वृतान्त लिखवाये और कुछ ने अपनी वंशावली को दैविक अवतारी चरित्रों के साथ जोड़ लिया ताकि वह प्रजा उन के दैविक अधिकारों को मानती रहे। अवतारों की कथाओं से एक और तथ्य भी उजागर होता है कि खलनायक भी भक्ति तथा साधना के मार्ग से दैविक शक्तियां प्राप्त कर सकते थे। किन्तु जब भी वह दैविक शक्ति का दुर्पयोग करते थे तो भगवान उन का दुर्पयोग रोकने के लिये अवतार ले कर शक्ति तथा खलनायक का विनाश भी करते थे।
भूगोलिक घटनायें - एक प्राचीन यव (जावा) कथानुसार एक समय केवल आत्मायें ही यव दूइप पर निवास करती थीं। जावा निवासी विशवास करते हैं कि उन की सृष्टि स्थानांतरण से आरम्भ हुयी थी। वराह अवतार कथा में दैत्य हिरण्याक्ष धरती को चुरा कर समुद्र में छुप गया था तथा वराह भगवान धरती को अपने दाँतों के ऊपर समतुलित कर के सागर से बाहर निकाल कर लाये थे। कथा और यथार्थ में कितनी समानता और विषमता होती है इस का अंदाज़ा इस बात मे लगा सकते हैं कि जावा से ले कर आस्ट्रेलिया तक सागर के नीचे पठारी दूइप जल से उभरते और पुनः जलग्रस्त भी होते रहते हैं। आस्ट्रेलिया नाम आन्ध्रालय (आस्त्रालय) से परिवर्तित जान पडता है। यव दूइप पर ही संसार के सब से प्राचीन मानव अस्थि अवशेष मिले थे। पौराणिक कथाओं में भी कई बार दैत्यों ने देवों को स्वर्ग से निष्कासित किया था। इस प्रकार के कई रहस्य पौराणिक कथाओं में छिपे पड़े हैं।
अवतारवाद का मानना या ना मानना प्रत्येक हिन्दू का निजि निर्णय है। कथाओं का सम्बन्ध किसी भूगौलिक, ऐतिहासिक घटना, अथवा किसी आदर्श के व्याखीकरण हेतु भी हो सकता है। हिन्दू धर्म किसी को भी किसी विशेष मत के प्रति बाध्य नहीं करता। जितने हिन्दू ईश्वर को साकार तथा अवतारवादी मानते हैं उतने ही हिन्दू ईश्वर को निराकार भी मानते हैं। कई हिन्दू अवतारवाद में आस्था नहीं रखते और अवतारी चरित्रों को महापुरुष ही मानते हैं। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अवतारी कथाओं में मानवता का इतिहास छुपा है।
कारण कुछ भी हो, निश्चित ही अवतारों की कथाओं में बहुत कुछ तथ्य छिपे हैं। अवश्य ही प्राचीन हिन्दू संस्कृति अति विकसित थी तथा पौराणिक कथायें इस का प्रमाण हैं। पौराणिक कथाओं का लेखान अतिश्योक्ति पूर्ण है अतः साहित्यक भाषा तथा यथार्थ का अन्तर विचारनीय अवश्य है। साधारण मानवी कृत्यों को महामानवी बनाना और ईश्वरीय शक्तियों को जनहित में मानवी रूप में प्रस्तुत करना हिन्दू धर्म की विशेषता रही है।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। (श्रीमद्भाग्वद् गीता 4/7-8)
हिन्दूओं का विशवास है कि सृष्टि में सभी प्राणी पूर्वनिश्चित धर्मानुसार अपने अपने कार्य करते रहते हैं और जब कभी धर्म की हानि की होती है तो सृष्टिकर्ता धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये धरती पर अवतार लेते हैं। मुख्यतः आज तक सृष्टि पालक भगवान विष्णु नौ बार धरती पर अवतरित हो चुके हैं और दसवीं बार अभी हों गे। सभी अवतारों की कथायें पुराणों में विस्तार पूर्वक संकलित हैं। उन का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः –
मत्स्य अवतार – एक बार राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी के तट पर तर्पण कर रहे थे तो एक छोटी मछली उन की अंजली में आकर विनती करने लगी कि वह उसे बचा लें। राजा सत्यव्रत ने एक पात्र में जल भर कर उस मछली को सुरक्षित कर दिया किन्तु शीघ्र ही वह मछली पात्र से भी बड़ी हो गयी। राजा ने मछली को क्रमशः तालाब, नदी और अंत में सागर के अन्दर रखा पर हर बार वह पहले से भी बड़े शरीर में परिवर्तित होती गयी। अंत में मछली रूपी विष्णु ने राजा सत्यव्रत को एक महाभयानक बाढ़ के आने से समस्त सृष्टि पर जीवन नष्ट हो जाने की चेतावनी दी। तदन्तर राजा सत्यव्रत ने एक बड़ी नाव बनवायी और उस में सभी धान्य, प्राणियों के मूल बीज भर दिये और सप्तऋषियों के साथ नाव में सवार हो गये। मछली ने नाव को खींच कर पर्वत शिखर के पास सुरक्षित पहँचा दिया। इस प्रकार मूल बीजों और सप्तऋषियों के ज्ञान से महाप्रलय के पश्चात सृष्टि पर पुनः जीवन का प्रत्यारोपन हो गया। इस कथा का विशलेशन हज़रत नोहा की आर्क के साथ किया जा सकता है जो बाईबल में संकलित है। यह कथा डी एन ऐ सुरक्षित रखने की वैज्ञानिक क्षमता की ओर संकेत भी करती है जिस की सहायता से सृष्टि के विनाश के बाद पुनः उत्पत्ति करी जा सके।
कुर्मा अवतार – महाप्रलय के कारण पृथ्वी की सम्पदा जलाशाय़ी हो गयी थी। अतः भगवान विष्णु ने कछुऐ का अवतार ले कर सागर मंथन के समय पृथ्वी की जलाशाय़ी सम्पदा को निकलवाया था। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि आईस ऐज के बाद सृष्टि का पुनरर्निमाण हुआ था। पौराणिक सागर मंथन की कथानुसार सुमेरु पर्वत को सागर मंथन के लिये इस्तेमाल किया गया था। माऊंट ऐवरेस्ट का ही भारतीय नाम सुमेरू पर्वत है तथा नेपाल में उसे सागर मत्था कहा जाता है। जलमग्न पृथ्वी से सर्व प्रथम सब से ऊँची चोटी ही बाहर प्रगट हुयी होगी। यह तो वैज्ञानिक तथ्य है कि सभी जीव जन्तु और पदार्थ सागर से ही निकले हैं। अतः उसी घटना के साथ इस कथा का विशलेशन करना चाहिये।
वराह अवतार – भगवान विष्णु ने दैत्य हिरणाक्ष का वध करने के लिये वराह रूप धारण किया था तथा उस के चुंगल से धरती को छुड़वाया था। पौराणिक चित्रों में वराह भगवान धरती को अपने दाँतों के ऊपर संतुलित कर के सागर से बाहर निकाल कर ला रहे होते हैं। वराह को पूर्णतया वराह (जंगली सूअर) के अतिरिक्त कई अन्य चित्रों में अर्ध-मानव तथा अर्ध-वराह के रूप में भी दर्शाया जाता है। वराह अवतार के मानव शरीर पर वराह का सिर और चार हाथ हैं जो कि भगवान विष्णु की तरह शंख, चक्र, गदा और पद्म लिये हुये दैत्य हिरणाक्ष से युद्ध कर रहे हैं। विचारनीय वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सभी प्राचीन चित्रों में धरती गोलाकार ही दर्शायी जाती है जो प्रमाण है कि आदि काल से ही हिन्दूओं को धरती के गोलाकार होने का पता था। इस अवतार की कथा का सम्बन्ध महाप्रलय के पश्चात सागर के जलस्तर से पृथ्वी का पुनः प्रगट होना भी है।
नर-सिहं अवतार – भगवान विष्णु ने नर-सिंह (मानव शरीर पर शेर का सिर) के रूप में अवतरित हो कर दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध किया था जिस के अहंकार और क्रूरता ने सृष्टि का समस्त विधान तहस नहस कर दिया था। नर-सिंह एक स्तम्भ से प्रगट हुये थे जिस पर हिरण्यकशिपु ने गदा से प्रहार कर के भगवान विष्णु की सर्व-व्यापिक्ता और शक्ति को चुनौती दी थी। यह अवतार इस धारणा का प्रतिपादन करता है कि ईश्वरीय शक्ति के लिये विश्व में कुछ भी करना असम्भव नहीं भले ही वैज्ञानिक तर्क से ऐसा असम्भव लगे।
वामन अवतार – वामन अवतार के रूप नें भगवान विष्णु मे दैत्यराज बलि से तीन पग पृथ्वी दान में मांगी थी। राजा बलि ने दैत्यगुरू शुक्राचार्य के विरोध के बावजूद जब वामन को तीन पग पृथ्वी देना स्वीकार कर लिया तो वामन ने अपना आकार बढ़ा लिया और दो पगों में आकाश और पाताल को माप लिया। जब तीसरा पग रखने के लिये कोई स्थान ही नहीं बचा तो प्रतिज्ञा पालक बलि ने अपना शीश तीसरा पग रखने के लिये समर्पित कर दिया। विष्णु ने तीसरे पग से बलि को सुतल-लोक में धंसा दिया परन्तु उस की दान वीरता से प्रसन्न हो कर राजा बलि को अमर-पद भी प्रदान कर दिया। आज भी बलि सुतुल-लोक के स्वामी हैं। दक्षिण भारत में इस कथा को पोंगल त्योहार के साथ जोडा जाता है।
परशुराम अवतार – परशुराम का विवरण रामायण तथा महाभारत दोनो महाकाव्यों में आता है। वह ऋषि जमदग्नि के पुत्र थे और उन्हों ने भगवान शिव की उपासना कर के एक दिव्य परशु (कुलहाड़ा) वरदान में प्राप्त किया था। एक बार राजा कृतवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु अपनी सैना का साथ जमदग्नि के आश्रम में आये तो ऋषि ने उन का आदर सत्कार किया। ऋषि ने सभी पदार्थ कामधेनु दिव्य गाय की कृपा से जुटाये थे। इस से आश्चर्य चकित हो कर कृतवीर्य ने अपने सैनिकों को ज़बरदस्ती ऋषि की गाय को ले जाने का आदेश दे दिया। अंततः परशुराम ने कृतवीर्य तथा उस की समस्त सैना का अपने परशु से संहार किया। तदन्तर कृतवीर्य के पुत्रों ने ऋषि जमदग्नि का वध कर दिया तो परशुराम ने कृतवीर्य और समस्त क्षत्रिय जाति का विनाश कर दिया और पूरी पृथ्वी उन से छीन कर ऋषि कश्यप को दान कर दी। सम्भवतः बाद में कश्यप ऋषि के नाम से ही उन के आश्रम के समीप का सागर कश्यप सागर (केस्पीयन सी) के नाम से आज तक जाना जाता है। पूरा कथानांक प्रचीन इतिहास अपने में छुपाये हुये है। परशुराम अवतार राजाओं के अत्याचार तथा निरंकुश्ता के विरुध शोषित वर्ग का प्रथम शक्ति पलट अन्दोलन था। परशुराम अवतार ने शासकों को अधिकारों के दुरुप्योग के विरुध चेताया और आज के संदर्भ में भी इसी प्रकार के अवतार की पुनः ज़रूरत है।
राम अवतार - परशुराम अवतार राजसत्ता के दुरुप्योग के विरुध शोषित वर्ग का आन्दोलन था तो भगवान विष्णु ने ऐक आदर्श राजा तथा आदर्श मानव की मर्यादा स्थापित करने के लिये राम अवतार लिया। राम का चरित्र हिन्दू संस्कृति में एक आदर्श मानव, भाई, पति, पुत्र के अतिरिक्त राजा के व्यवहार का भी कीर्तिमान है। अंग्रेजी साहित्य के लेखक टोमस मूर ने पन्द्रवीं शताब्दी में आदर्श राज्य के तौर पर एक यूटोपिया राज्य की केवल कल्पना ही करी थी किन्तु राम राज्य टोमस मूर के काल्पनिक राज्य से कहीं अधिक वास्तविक आदर्श राज्य स्थापित हो चुका था। राम का इतिहास समेटे रामायण विश्व साहित्य का प्रथम महाकाव्य है।
कृष्ण अवतार – कृष्ण अवतार का समय आज से लगभग 5100 वर्ष या ईसा से 3102 वर्ष पूर्व का माना जाता है। कृष्ण ने महाभारत युद्ध में एक निर्णायक भूमिका निभाय़ी और उन के दुआरा गीता का ज्ञान अर्जुन को दिया जो कि संसार का सब से सक्ष्म दार्शनिक वार्तालाप है। कृष्ण के इतिहास का वर्णन महाभारत के अतिरिक्त कई पुराणों तथा हिन्दू साहित्य की पुस्तकों में भी है। उन के बारे में कई सच्ची तथा काल्पनिक कथायें भी लिखी गयी हैं। कृष्ण दार्शनिक होने के साथ साथ एक राजनीतिज्ञ्, कुशल रथवान, योद्धा, तथा संगीतिज्ञ् भी थे। उन को 64 कलाओं का ज्ञाता कहा जाता है और सोलह कला सम्पूर्ण अवतार कहा जाता है। कृष्ण को आज के संदर्भ में पूर्णत्या दि कम्पलीट मैन कहा जा सकता है।
बुद्ध अवतार – विष्णु ने सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के रूप में जन-साधारण को पशु बलि के विरुध अहिंसा का संदेश देने के लिये अवतार लिया। भारतीय शिल्प कला में सब से अधिक मूर्तियां भगवान बुद्ध की ही हैं। आम तौर पर बौध मत के अनुयायी गौतम बुद्ध के अतिरिक्त बुद्ध के और भी बोधिसत्व अवतारों को मानते हैं।
कलकी अवतार –विष्णु पुराण में सैंकड़ों वर्ष पूर्व ही भविष्यवाणी की गयी है कि कलियुग के अन्त में कलकी महा-अवतार होगा जो इस युग के अन्धकारमय और निराशा जनक वातावरण का अन्त करे गा। कलकी शब्द सदैव तथा समय का पर्यायवाची है। कलकी अवतार की भविष्यवाणी के कई अन्य स्त्रोत्र भी हैं।
अवतार-वाद
हिन्दू् धर्म में हर कोई अपने आप में ईश्वरीय छवि का आभास कर सकता है तथा ईश्वर से बराबरी भी कर सकता है। इतने पर भी संतोष ना हो तो अपने आप को ही ईश्वर घोषित कर के अपने भक्तों का जमावड़ा भी इकठ्ठा कर सकता है। हिन्दू् धर्म में ईश्वर से सम्पर्क करने के लिये किसी दलाल, प्रतिनिधि या ईश्वर के किसी बेटे-बेटी की मार्फत से नहीं जाना पड़ता। ईश्वरीय-अपमान (ब्लासफेमी) का तो प्रश्न ही नहीं उठता क्यों कि हिन्दू धर्म में पूर्ण स्वतन्त्रता है।हिन्दू् धर्म में हर कोई अपने विचारों से अवतार-वाद की व्याख्या कर सकता है। कोई किसी को अवतार माने या ना माने इस से किसी को भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। सभी हिन्दू धर्म के मत की छत्र छाया तले समा जाते हैं। हिन्दू धर्माचार्यों ने अवतार वाद की कई व्याख्यायें प्रस्तुत की हैं। उन में समानतायें, विषमतायें तथा विरोधाभास भी है।
सृष्टि की जन्म प्रक्रिया - एक मत के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतार सृष्टि की जन्म प्रक्रिया को दर्शाते हैं। इस मतानुसार जल से सभी जीवों की उत्पति हुई अतः भगवान विष्णु सर्व प्रथम जल के अन्दर मत्स्य रूप में प्रगट हुये। फिर कुर्मा बने। इस के पश्चात वराह, जो कि जल तथा पृथ्वी दोनो का जीव है। नरसिंह, आधा पशु – आधा मानव, पशु योनि से मानव योनि में परिवर्तन का जीव है। वामन अवतार बौना शरीर है तो परशुराम एक बलिष्ठ ब्रह्मचारी का स्वरूप है जो राम अवतार से गृहस्थ जीवन में स्थानांतरित हो जाता है। कृष्ण अवतार एक वानप्रस्थ योगी, और बुद्ध परियावरण का रक्षक हैं। परियावरण के मानवी हनन की दशा सृष्टि को विनाश की ओर धकेल देगी। अतः विनाश निवारण के लिये कलकी अवतार की भविष्यवाणी पौराणिक साहित्य में पहले से ही करी गयी है।
मानव जीवन के विभन्न पड़ाव - एक अन्य मतानुसार दस अवतार मानव जीवन के विभन्न पड़ावों को दर्शाते हैं। मत्स्य अवतार शुक्राणु है, कुर्मा भ्रूण, वराह गर्भ स्थति में बच्चे का वातावरण, तथा नर-सिंह नवजात शिशु है। आरम्भ में मानव भी पशु जैसा ही होता है। वामन बचपन की अवस्था है, परशुराम ब्रह्मचारी, राम युवा गृहस्थी, कृष्ण वानप्रस्थ योगी तथा बुद्ध वृद्धावस्था का प्रतीक है। कलकी मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म की अवस्था है।
राजशक्ति के दैविक सिद्धान्त - कुछ विचारकों के मतानुसार राजशक्ति के दैविक सिद्धान्त को बल देने के लिये कुछ राजाओं ने अपने कृत्यों के आश्रचर्य चकित करने वाले वृतान्त लिखवाये और कुछ ने अपनी वंशावली को दैविक अवतारी चरित्रों के साथ जोड़ लिया ताकि वह प्रजा उन के दैविक अधिकारों को मानती रहे। अवतारों की कथाओं से एक और तथ्य भी उजागर होता है कि खलनायक भी भक्ति तथा साधना के मार्ग से दैविक शक्तियां प्राप्त कर सकते थे। किन्तु जब भी वह दैविक शक्ति का दुर्पयोग करते थे तो भगवान उन का दुर्पयोग रोकने के लिये अवतार ले कर शक्ति तथा खलनायक का विनाश भी करते थे।
भूगोलिक घटनायें - एक प्राचीन यव (जावा) कथानुसार एक समय केवल आत्मायें ही यव दूइप पर निवास करती थीं। जावा निवासी विशवास करते हैं कि उन की सृष्टि स्थानांतरण से आरम्भ हुयी थी। वराह अवतार कथा में दैत्य हिरण्याक्ष धरती को चुरा कर समुद्र में छुप गया था तथा वराह भगवान धरती को अपने दाँतों के ऊपर समतुलित कर के सागर से बाहर निकाल कर लाये थे। कथा और यथार्थ में कितनी समानता और विषमता होती है इस का अंदाज़ा इस बात मे लगा सकते हैं कि जावा से ले कर आस्ट्रेलिया तक सागर के नीचे पठारी दूइप जल से उभरते और पुनः जलग्रस्त भी होते रहते हैं। आस्ट्रेलिया नाम आन्ध्रालय (आस्त्रालय) से परिवर्तित जान पडता है। यव दूइप पर ही संसार के सब से प्राचीन मानव अस्थि अवशेष मिले थे। पौराणिक कथाओं में भी कई बार दैत्यों ने देवों को स्वर्ग से निष्कासित किया था। इस प्रकार के कई रहस्य पौराणिक कथाओं में छिपे पड़े हैं।
अवतारवाद का मानना या ना मानना प्रत्येक हिन्दू का निजि निर्णय है। कथाओं का सम्बन्ध किसी भूगौलिक, ऐतिहासिक घटना, अथवा किसी आदर्श के व्याखीकरण हेतु भी हो सकता है। हिन्दू धर्म किसी को भी किसी विशेष मत के प्रति बाध्य नहीं करता। जितने हिन्दू ईश्वर को साकार तथा अवतारवादी मानते हैं उतने ही हिन्दू ईश्वर को निराकार भी मानते हैं। कई हिन्दू अवतारवाद में आस्था नहीं रखते और अवतारी चरित्रों को महापुरुष ही मानते हैं। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अवतारी कथाओं में मानवता का इतिहास छुपा है।
कारण कुछ भी हो, निश्चित ही अवतारों की कथाओं में बहुत कुछ तथ्य छिपे हैं। अवश्य ही प्राचीन हिन्दू संस्कृति अति विकसित थी तथा पौराणिक कथायें इस का प्रमाण हैं। पौराणिक कथाओं का लेखान अतिश्योक्ति पूर्ण है अतः साहित्यक भाषा तथा यथार्थ का अन्तर विचारनीय अवश्य है। साधारण मानवी कृत्यों को महामानवी बनाना और ईश्वरीय शक्तियों को जनहित में मानवी रूप में प्रस्तुत करना हिन्दू धर्म की विशेषता रही है।
सती प्रथा का इतिहास (Origin of Sati Pratha)
सती प्रथा
हमारे सभ्य मानवीय इतिहास की कुछेक सबसे बड़ी कुरीतियों मे से एक है ..... जिसे एक कुरीति से ज्यादा हमारे समाज पर कलंक कहना अधिक उपर्युक्त होगा...!उस से भी ज्यादा तो दुखद यह है कि..... इस संबंध मे समुचित जानकारी का अभाव .....आज के हिन्दू नौजवानों को हमेशा ""बचाव मुद्रा"" मे आने को विवश कर देता है ॰
आश्चर्यजनक रूप से..... हमारे समाज के बुद्धिजीवियों द्वारा ""सतीप्रथा"" को हिन्दू समाज के एक बड़ी कुरीति के रूप मे प्रस्तुत किया गया और यह प्रचारित किया गया कि..... ""सतीप्रथा"" पुरातन काल से ही हिन्दू समाज का हिस्सा रहा है....!
परंतु ..... कोई भी मनहूस बुद्धिजीवी आजतक यह बताने मे असफल रहा है कि...... दुनिया की पहली सती कौन थी और.... उसने सर्वप्रथम कब आत्मदाह किया था...?????
साथ ही.... ऐसे बुद्धिजीवियों के मुंह मे उस समय "मेंढक" चला जाता है .... जब उन्हे पूछा जाता है कि.... अगर ""सतीप्रथा"" पुरातन काल से ही हमारे हिन्दू समाज का हिस्सा रहा है तो...... हमारे धार्मिक ग्रन्थों .... खासकर वेद-पुराण या रामायण-महाभारत मे इसका जिक्र क्यों नहीं है...????
हालांकि, शातिर सेकुलरों द्वारा यह ज़ोर शोर से यह फैलाया जाता है कि..... महाभारत मे पांडु की पत्नी "माद्री" दुनिया की पहली सती थी.... और, उसने पांडु के मृत्यु उपरांत ... उसी के साथ चिता मे जल गयी थी....!
परंतु.... महाभारत मे ऐसा इसीलिए हुआ था क्योंकि..... माद्री खुद को पांडु के मृत्यु का जिम्मेदार मानती थी.... और, वो आत्मग्लानि के कारण .... अपने पति पांडु के साथ जल गयी थी...!
यह बहुत कुछ ऐसा ही है .... जैसे आज के जमाने मे भी .... कई प्रेमी -प्रेमिका साथ मे आत्महत्या कर लेते हैं..... अथवा , एक के गुजर जाने के बाद ... उसकी याद मे दूसरा भी मर जाता है या आत्महत्या कर लेता है...!
इसीलिए.... इस घटना को धार्मिक रंग नहीं दिया जा सकता है .... क्योंकि... वह एक भावनात्मक बात थी.... ना कि ... धार्मिक ...!
और तो और..... आपको यह जानकार काफी हैरानी होगी कि ..... ""सती"" का मतलब वो होता ही नहीं है..... जो, हमें इन मनहूस बुद्धिजीवियों द्वारा जबरदस्ती समझाने का प्रयास किया जाता है....!
""सती"" का मतलब होता है...... अपने पति को पूर्ण समर्पित अर्थात .... पतिव्रता स्त्री...!
शायद हम हिन्दू एक महत्वपूर्ण बात भूल रहे हैं कि...... सती अनुसूइया , सती सीता , सती सावित्री इत्यादि दुनिया की सबसे "सुविख्यात सती" हैं .... और, इन सबमें से किसी ने भी..... ना तो आत्महत्या की है .... ना ही , अपने पति के मृत्यु उपरांत .... उनके साथ आत्मदाह किया है ...!
हकीकत यह है कि..... ""सती प्रथा"" ..... हमारे हिन्दू धर्म के कारण नहीं बल्कि.... ""इस्लाम"" के कारण शुरू हुआ था.... और, इस्लाम का प्रभुत्व कम होने के साथ ही खत्म भी हो गया ...!
""सती प्रथा"".... और कुछ नहीं बल्कि.... ""जौहर प्रथा"" का ही विस्तार था..... जो कि ... सामूहिक आत्मदाह से होते -होते कालांतर मे ..... व्यक्तिगत स्तर तक पहुँच गया था...!
जानकारी के लिए आपको याद दिला दूँ कि...... आज से करीब 1200 साल पहले .... मुस्लिमों ने जब भारत पर आक्रमण किया तो..... उनका काम सिर्फ लूट-मार और हिन्दू स्त्रियों का बलात्कार करना ही था...!
उसके बाद जब हमारे हिंदुस्तान मे मुगलों का ""शासन"" हो गया तो.... वे युद्ध मे हारे हुए हिन्दू राजाओं के परिवार के सभी स्त्रियों को लूटा हुआ माल समझ कर..... बलात्कार करते एवं उन्हे अपने हरम मे रखेल बनाकर रखते थे...!
इसीलिए.... युद्ध हार जाने की स्थिति मे..... हिन्दू रानियाँ , राजकुमारी और उनकी सभी दासियाँ ..... खुद को मुस्लिमों के बलात्कार से बचाने ... एवं , अपनी सतीत्व , इज्जत और मन-सम्मान बनाए रखने के लिए ..... एक जगह अग्नि जलाकर .... सामूहिक आत्मदाह कर लेती थीं.... !
और चूंकि.... इस से मुस्लिम आक्रांताओं को कुछ भी हाथ नहीं लगता था तो.... वे आक्रांता .... राजपरिवार के स्थान पर..... राजकर्मचारियों के घर की महिलाओं को ही ले जाने लगे......!
इसीलिए... कुछ समय बाद ........ राजपरिवार के साथ राजकर्मचारियों के घर की स्त्रियाँ भी..... राजपरिवार के साथ .... "" जौहर "" मे छलांग लगाने लगी.....!
और.... इस तरह..... धीरे -धीरे खुद को मुस्लिमों के बलात्कार से बचाने ... एवं , अपनी सतीत्व , इज्जत और मन-सम्मान बनाए रखने के लिए यह प्रथा .... निजी स्तर तक तक पहुँच गयी और..... थोड़ी अपभंश होकर ........ अपने पति के सामान्य मृत्यु के उपरांत भी..... स्त्रियाँ अपने पति की चिता के साथ ही अग्नि मे प्रवेश कर जाने लगी ..... जबकि... प्रारम्भ मे यह सिर्फ .... युद्ध मे वीरगति प्राप्त होने पर ही किया जाता था.....!
आगे चलकर .... यह "" व्यक्तिगत जौहर प्रथा "" पवित्र हिन्दू समाज मे एक सामाजिक नियम सा बन गया.... और, स्वेच्छा का स्थान ""जबरदस्ती"" ने लिया..... और, उसे ""सती प्रथा"" का नाम दे दिया गया ...!
अंत मे.... आततायी मुगलों का वर्चस्व खत्म होने ..... तथा , अंग्रेजी शासन मे..... एक हिन्दू समाजसुधारक ""राजा राम मोहन राय "" के अथक प्रयासों के बाद .... 1829 ईस्वी मे अंग्रेजी शासन द्वारा ""सती प्रथा "" को प्रतिबंधित कर दिया गया और.... इसे इसे गैरकानूनी बना दिया गया....!
आप खुद ही सोच सकते हैं कि..... आज के वामपंथी किस तरह..... लोगों को भ्रमित करने का काम किया करते हैं....
और, जो प्रथा .... मुस्लिमों के अत्याचार के कारण ..... और, खुद को मुस्लिमों के बलात्कार से बचाने ... एवं , अपनी सतीत्व , इज्जत और मन-सम्मान बनाए रखने के लिए ..... हिन्दू स्त्रियों द्वारा बेहद मजबूरी मे उठाया गया एक कदम था..... उसे , हिन्दू समाज के कुरीति की संज्ञा दे गयी.... और, उसे धर्म से जोड़ दिया गया ...... जबकि, यह विशुद्ध रूप से .... मुस्लिमों से अत्याचार से ही प्रारम्भ हुआ था....!
और.... आश्चर्यजनक रूप से आज भी ऐसे बुद्धिजीवी ..... ""सती प्रथा"" की तो बात करते हैं .... परंतु उसका प्रारम्भ ""जौहर प्रथा"" और ""मुस्लिमों के अत्याचार"" की चर्चा तक नहीं चाहते ...!
नोट : यह लेख किसी भी तरह से .... ""सती प्रथा"" का समर्थन नहीं करता है , ना ही इस लेख का उद्देश्य किसी भी समुदाय भावना को ठेस पहुंचाना है...!
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